पुद्गलोऽहं जीवान्तरमहमिति भ्रान्त्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सोपाधिचैतन्य-
परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् ।
यत्किल क्रोधोऽहमित्यादिवद्धर्मोऽहमित्यादिवच्च परद्रव्याण्यात्मीकरोत्यात्मानमपि परद्रव्यी- सामान्य अधिकरणसे अनुभव करनेसे, ‘मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये, ‘‘मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसी भ्रान्तिके कारण जो सोपाधिक (उपाधियुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है ।
भावार्थ : — धर्मादिके विकल्पके समय जो, स्वयं शुद्ध चैतन्यमात्र होनेका भान न रखकर, धर्मादिके विकल्पमें एकाकार हो जाता है वह अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता है ।।९५।।
इसप्रकार, अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता है, इसलिये अज्ञानी जीव उस अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है ।
गाथार्थ : — [एवं तु ] इसप्रकार [मन्दबुद्धिः ] मन्दबुद्धि अर्थात् अज्ञानी [अज्ञानभावेन ] अज्ञानभावसे [पराणि द्रव्याणि ] पर द्रव्योंको [आत्मानं ] अपनेरूप [करोति ] करता है [अपि च ] और [आत्मानम् ] अपनेको [परं ] पर [करोति ] करता है ।