Samaysar (Hindi). Gatha: 96.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
जीवान्तरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽयमात्मा धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं
पुद्गलोऽहं जीवान्तरमहमिति भ्रान्त्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सोपाधिचैतन्य-
परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात्
ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्
एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ
अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण ।।९६।।
एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मन्दबुद्धिस्तु
आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन ।।९६।।

यत्किल क्रोधोऽहमित्यादिवद्धर्मोऽहमित्यादिवच्च परद्रव्याण्यात्मीकरोत्यात्मानमपि परद्रव्यी- सामान्य अधिकरणसे अनुभव करनेसे, ‘मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये, ‘‘मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसी भ्रान्तिके कारण जो सोपाधिक (उपाधियुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है

भावार्थ :धर्मादिके विकल्पके समय जो, स्वयं शुद्ध चैतन्यमात्र होनेका भान न रखकर, धर्मादिके विकल्पमें एकाकार हो जाता है वह अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता है ।।९५।।

इसप्रकार, अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता है, इसलिये अज्ञानी जीव उस अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है

‘इसलिये कर्तृत्वका मूल अज्ञान सिद्ध हुआ’ यह अब कहते हैं :
यह मन्दबुद्धि जीव यों परद्रव्यको निजरूप करे
इस भाँतिसे निज आत्मको अज्ञानसे पररूप करे ।।९६।।

गाथार्थ :[एवं तु ] इसप्रकार [मन्दबुद्धिः ] मन्दबुद्धि अर्थात् अज्ञानी [अज्ञानभावेन ] अज्ञानभावसे [पराणि द्रव्याणि ] पर द्रव्योंको [आत्मानं ] अपनेरूप [करोति ] करता है [अपि च ] और [आत्मानम् ] अपनेको [परं ] पर [करोति ] करता है

टीका :वास्तवमें इसप्रकार, ‘मैं क्रोध हूँ’ इत्यादिकी भाँति और ‘मैं धर्मद्रव्य हूँ’