Samaysar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
१७३
करोत्येवमात्मा, तदयमशेषवस्तुसम्बन्धविधुरनिरवधिविशुद्धचैतन्यधातुमयोऽप्यज्ञानादेव सविकार-
सोपाधीकृतचैतन्यपरिणामतया तथाविधस्यात्मभावस्य कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्याना-
विष्टस्येव प्रतिष्ठितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्
तथा हियथा खलु भूताविष्टोऽज्ञानाद्भूतात्मानावेकी-
कुर्वन्नमानुषोचितविशिष्टचेष्टावष्टम्भनिर्भरभयङ्करारम्भगम्भीरामानुषव्यवहारतया तथाविधस्य भावस्य
कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्र-
भावकानुचितविचित्रभाव्यक्रोधादिविकारकरम्बितचैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता
प्रतिभाति
यथा वाऽपरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्महिषात्मानावेकी-
कुर्वन्नात्मन्यभ्रङ्कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात्प्रच्युतमानुषोचितापवरकद्वारविनिस्सरणतया तथाविधस्य
भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माऽप्यज्ञानाद् ज्ञेयज्ञायकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नात्मनि
परद्रव्याध्यासान्नोइन्द्रियविषयीकृतधर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तरनिरुद्धशुद्धचैतन्यधातुतया
इत्यादिकी भाँति आत्मा परद्रव्योंको अपनेरूप करता है और अपनेको भी परद्रव्यरूप करता है;
इसलिये यह आत्मा, यद्यपि वह समस्त वस्तुओंके सम्बन्धसे रहित असीम शुद्ध चैतन्यधातुमय है
तथापि, अज्ञानके कारण ही सविकार और सोपाधिक किये गये चैतन्यपरिणामवाला होनेसे उस
प्रकारके अपने भावका कर्ता प्रतिभासित होता है
इसप्रकार, भूताविष्ट (जिसके शरीरमें भूत प्रविष्ट
हो ऐसे) पुरुषकी भाँति और ध्यानाविष्ट (ध्यान करनेवाले) पुरुषकी भाँति, आत्माके कर्तृत्वका
मूल अज्ञान सिद्ध हुआ
यह प्रगट दृष्टातसे समझाते हैं :

जैसे भूताविष्ट पुरुष अज्ञानके कारण भूतको और अपनेको एक करता हुआ, अमनुष्योचित विशिष्ट चेष्टाओंके अवलम्बन सहित भयंकर आरम्भसे युक्त अमानुषिक व्यवहारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है; इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके कारण ही भाव्य- भावकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, अविकार अनुभूतिमात्र भावकके लिये अनुचित विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोंसे मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है और जैसे अपरीक्षक आचार्यके उपदेशसे भैंसेका ध्यान करता हुआ कोई भोला पुरुष अज्ञानके कारण भैंसेको और अपनेको एक करता हुआ, ‘मैं गगनस्पर्शी सींगोंवाला बड़ा भैंसा हूँ’ ऐसे अध्यासके कारण मनुष्योचित जो कमरेके द्वारमेंसे बाहर निकलना उससे च्युत होता हुआ उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है, इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके कारण ज्ञेयज्ञायकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, ‘मैं परद्रव्य हूँ’ ऐसे अध्यासके कारण मनके विषयभूत किए गए धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवके द्वारा (अपनी) १. आरम्भ = कार्य; व्यापार; हिंसायुक्त व्यापार