Samaysar (Hindi). Kalash: 57.

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मनागपि न करोति; ततः समस्तमपि कर्तृत्वमपास्यति; ततो नित्यमेवोदासीनावस्थो जानन्
एवास्ते; ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति
(वसन्ततिलका)
अज्ञानतस्तु सतृणाभ्यवहारकारी
ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः
पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया
गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम्
।।५७।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
इसलिये समस्त कर्तृत्वको छोड़ देता है; अतः सदा ही उदासीन अवस्थावाला होता हुआ मात्र
जानता ही रहता है; और इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन होता हुआ अत्यन्त
अकर्ता प्रतिभासित होता है
भावार्थ :जो परद्रव्यके और परद्रव्यके भावोंके कर्तृत्वको अज्ञान जानता है वह स्वयं
कर्ता क्यों बनेगा ? यदि अज्ञानी बना रहना हो तो परद्रव्यका कर्ता बनेगा ! इसलिये ज्ञान होनेके
बाद परद्रव्यका कर्तृत्व नहीं रहता
।।९७।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[किल ] निश्चयसे [स्वयं ज्ञानं भवन् अपि ] स्वयं ज्ञानस्वरूप होने पर
भी [अज्ञानतः तु ] अज्ञानके कारण [यः ] जो जीव [सतृणाभ्यवहारकारी ] घासके साथ
एकमेक हुए सुन्दर भोजनको खानेवाले हाथी आदि पशुओंकी भाँति, [रज्यते ] राग करता है
(रागका और अपना मिश्र स्वाद लेता है) [असौ ] वह, [दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया ]
श्रीखंडके खट्टे-मीठे स्वादकी अति लोलुपतासे [रसालम् पीत्वा ] श्रीखण्डको पीता हुआ भी
[गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम् ] स्वयं गायका दूध पी रहा है ऐसा माननेवाले पुरुषके
समान है
भावार्थ :जैसे हाथीको घासके और सुन्दर आहारके भिन्न स्वादका भान नहीं होता
उसीप्रकार अज्ञानीको पुद्गलकर्मके और अपने भिन्न स्वादका भान नहीं होता; इसलिये वह
एकाकाररूपसे रागादिमें प्रवृत्त होता है
जैसे श्रीखण्डका स्वादलोलुप पुरुष, (श्रीखण्डके)
स्वादभेदको न जानकर, श्रीखण्डके स्वादको मात्र दूधका स्वाद जानता है उसीप्रकार अज्ञानी
जीव स्व-परके मिश्र स्वादको अपना स्वाद समझता है
।५७।