(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगा
अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः ।
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरंगाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः ।।५८।।
(वसन्ततिलका)
ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो
जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम् ।
चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो
जानीत एव हि करोति न किंचनापि ।।५९।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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अज्ञानसे ही जीव कर्ता होता है इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [मृगतृष्णिकां जलधिया ] मृगमरीचिकामें
जलकी बुद्धि होनेसे [मृगाः पातुं धावन्ति ] हिरण उसे पीनेको दौड़ते हैं; [अज्ञानात् ] अज्ञानके
कारण ही [तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन ] अन्धकारमें पड़ी हुई रस्सीमें सर्पका अध्यास होनेसे [जनाः
द्रवन्ति ] लोग (भयसे) भागते हैं; [च ] और (इसीप्रकार) [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [अमी ]
ये जीव, [वातोत्तरंगाब्धिवत् ] पवनसे तरंगित समुद्रकी भाँति [विकल्पचक्रकरणात् ] विकल्पोंके
समूहको करनेसे — [शुद्धज्ञानमयाः अपि ] यद्यपि वे स्वयं शुद्धज्ञानमय हैं तथापि — [आकुलाः ]
आकुलित होते हुए [स्वयम् ] अपने आप ही [कर्त्रीभवन्ति ] कर्ता होते हैं ।
भावार्थ : — अज्ञानसे क्या क्या नहीं होता ? हिरण बालूकी चमकको जल समझकर पीने
दौड़ते हैं और इसप्रकार वे खेद-खिन्न होते हैं । अन्धेरेमें पड़ी हुई रस्सीकोे सर्प मानकर लोग उससे
डरकर भागते हैं । इसीप्रकार यह आत्मा, पवनसे क्षुब्ध (तरंगित) हुये समुद्रकी भाँति, अज्ञानके
कारण अनेक विकल्प करता हुआ क्षुब्ध होता है और इसप्रकार – यद्यपि परमार्थसे वह शुद्धज्ञानघन
है तथापि — अज्ञानसे कर्ता होता है ।५८।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानसे आत्मा कर्ता नहीं होता : —
श्लोकार्थ : — [हंसः वाःपयसोः इव ] जैसे हंस दूध और पानीके विशेष-(अन्तर)को
जानता है उसीप्रकार [यः ] जो जीव [ज्ञानात् ] ज्ञानके कारण [विवेचकतया ] विवेकवाला
(भेदज्ञानवाला) होनेसे [परात्मनोः तु ] परके और अपने [विशेषम् ]िवशेषको [जानाति ] जानता