(मन्दाक्रान्ता)
ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरौष्ण्यशैत्यव्यवस्था
ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः ।
ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम् ।।६०।।
(अनुष्टुभ्)
अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जसा ।
स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ।।६१।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
है [सः ] वह (जैसे हंस मिश्रित हुए दूध और पानीको अलग करके दूधको ग्रहण करता है
उसीप्रकार) [अचलं चैतन्यधातुम् ] अचल चैतन्यधातुमें [सदा ] सदा [अधिरूढः ] आरूढ़ होता
हुआ (उसका आश्रय लेता हुआ) [जानीत एव हि ] मात्र जानता ही है, [किंचन अपि न करोति ]
किंचित्मात्र भी कर्ता नहीं होता (अर्थात् ज्ञाता ही रहता है, कर्त्ता नहीं होता) ।
भावार्थ : — जो स्व-परके भेदको जानता है वह ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं ।५९।
अब, यह कहते हैं कि जो कुछ ज्ञात होता है वह ज्ञानसे ही ज्ञात होता है : —
श्लोकार्थ : — [ज्वलन-पयसोः औष्ण्य-शैत्य-व्यवस्था ] (गर्म पानीमें) अग्निकी
उष्णताका और पानीकी शीतलताका भेद [ज्ञानात् एव ] ज्ञानसे ही प्रगट होता है ।
[लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति ] नमकके स्वादभेदका निरसन ( – निराकरण,
अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञानसे ही होता है (अर्थात् ज्ञानसे ही व्यंजनगत नमकका सामान्य स्वाद उभर
आता है और स्वादका स्वादविशेष निरस्त होता है) । [स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादेः
भिदा ] निज रससे विकसित होनेवाली नित्य चैतन्यधातुका और क्रोधादि भावोंका भेद, [कर्तृभावम्
भिन्दती ] कर्तृत्वको ( – कर्तापनके भावको) भेदता हुआ — तोड़ता हुआ, [ज्ञानात् एव प्रभवति ]
ज्ञानसे ही प्रगट होता है ।६०।
अब, अज्ञानी भी अपने ही भावको करता है, किन्तु पुद्गलके भावको कभी नहीं करता —
इस अर्थका, आगेकी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [अञ्जसा ] वास्तवमें [आत्मानम् ] अपनेको [अज्ञानं
ज्ञानम् अपि ] अज्ञानरूप या ज्ञानरूप [कुर्वन् ] करता हुआ [ आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात् ]
आत्मा अपने ही भावका कर्ता है, [परभावस्य ] परभावका (पुद्गलके भावोंका) कर्ता तो
[क्वचित् न ] कदापि नहीं है ।६१।