(अनुष्टुभ्)
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् ।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।।६२।।
तथा हि —
ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधाणि दव्वाणि ।
करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ।।९८।।
व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान् द्रव्याणि ।
करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ।।९८।।
व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म
कुर्वन् प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमन्तःकर्मापि करोत्यविशेषादि-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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इसी बातको दृढ़ करते हुए कहते हैं कि : —
श्लोकार्थ : — [आत्मा ज्ञानं ] आत्मा ज्ञानस्वरूप है, [स्वयं ज्ञानं ] स्वयं ज्ञान ही है;
[ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति ] वह ज्ञानके अतिरिक्त अन्य क्या करे ? [आत्मा परभावस्य कर्ता ]
आत्मा परभावका कर्ता है [अयं ] ऐसा मानना (तथा कहना) सो [व्यवहारिणाम् मोहः ] व्यवहारी
जीवोंका मोह (अज्ञान) है ।६२।
अब क हते हैं कि व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं : —
घट-पट-रथादिक वस्तुऐं, कर्मादि अरु सब इन्द्रियें ।
नोकर्म विधविध जगतमें, आत्मा करे व्यवहारसे ।।९८।।
गाथार्थ : — [व्यवहारेण तु ] व्यवहारसे अर्थात् व्यवहारी जन मानते हैं कि [इह ] जगतमें
[आत्मा ] आत्मा [घटपटरथान् द्रव्याणि ] घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओंको, [च ] और
[करणानि ] इन्द्रियोंको, [विविधानि ] अनेक प्रकारके [कर्माणि ] क्रोधादि द्रव्यकर्मोंको [च
नोकर्माणि ] और शरीरादिक नोकर्मोंको [करोति ] करता है ।
टीका : — जिसने अपने (इच्छारूप) विकल्प और (हस्तादिकी क्रियारूप) व्यापारके
द्वारा यह आत्मा घट आदि परद्रव्यस्वरूप बाह्यकर्मको करता हुआ (व्यवहारी जनोंको) प्रतिभासित
होता है, इसलिये उसीप्रकार (आत्मा) क्रोधादि परद्रव्यस्वरूप समस्त अन्तरंग कर्मको भी —