जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो ।
तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ।।१०८।।
यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः ।
तथा जीवो व्यवहारात् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः ।।१०८।।
यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापक-
भावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः, तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत
एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
गुणदोषउत्पादक कहा ज्यों भूपको व्यवहारसे ।
त्यों द्रव्यगुणउत्पन्नकर्ता, जीव कहा व्यवहारसे ।।१०८।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [राजा ] राजाको [दोषगुणोत्पादकः इति ] प्रजाके दोष और
गुणोंको उत्पन्न करनेवाला [व्यवहारात् ] व्यवहारसे [आलपितः ] कहा है, [तथा ] उसीप्रकार
[जीवः ] जीवको [द्रव्यगुणोत्पादक ] पुद्गलद्रव्यके द्रव्य-गुणको उत्पन्न करनेवाला
[व्यवहारात् ] व्यवहारसे [भणितः ] कहा गया है ।
टीका : — जैसे प्रजाके गुणदोषोंमें और प्रजामें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्व-भावसे ही
(प्रजाके अपने भावसे ही) उन गुण-दोषोंकी उत्पत्ति होने पर भी — यद्यपि उन गुण-दोषोंमें
और राजामें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि यह उपचारसे कहा जाता है कि ‘उनका
उत्पादक राजा है’; इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंमें और पुद्गलद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाव
होनेसे स्व-भावसे ही (पुद्गलद्रव्यके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होने पर भी —
यद्यपि उन गुणदोषोंमें और जीवमें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि — ‘उनका उत्पादक
जीव है’ ऐसा उपचार किया जाता है ।
भावार्थ : — जगत्में कहा जाता है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ । इस कहावतसे प्रजाके
गुणदोषोंको उत्पन्न करनेवाला राजा कहा जाता है । इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंको
उत्पन्न करनेवाला जीव कहा जाता है । परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो यह यथार्थ नहीं, किन्तु
उपचार है ।।१०८।।
अब आगेकी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं : —