यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापक- भावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः, तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः ।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [राजा ] राजाको [दोषगुणोत्पादकः इति ] प्रजाके दोष और गुणोंको उत्पन्न करनेवाला [व्यवहारात् ] व्यवहारसे [आलपितः ] कहा है, [तथा ] उसीप्रकार [जीवः ] जीवको [द्रव्यगुणोत्पादक ] पुद्गलद्रव्यके द्रव्य-गुणको उत्पन्न करनेवाला [व्यवहारात् ] व्यवहारसे [भणितः ] कहा गया है ।
टीका : — जैसे प्रजाके गुणदोषोंमें और प्रजामें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्व-भावसे ही (प्रजाके अपने भावसे ही) उन गुण-दोषोंकी उत्पत्ति होने पर भी — यद्यपि उन गुण-दोषोंमें और राजामें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि यह उपचारसे कहा जाता है कि ‘उनका उत्पादक राजा है’; इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंमें और पुद्गलद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्व-भावसे ही (पुद्गलद्रव्यके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होने पर भी — यद्यपि उन गुणदोषोंमें और जीवमें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि — ‘उनका उत्पादक जीव है’ ऐसा उपचार किया जाता है ।
भावार्थ : — जगत्में कहा जाता है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ । इस कहावतसे प्रजाके गुणदोषोंको उत्पन्न करनेवाला राजा कहा जाता है । इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंको उत्पन्न करनेवाला जीव कहा जाता है । परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो यह यथार्थ नहीं, किन्तु उपचार है ।।१०८।।