Samaysar (Hindi). Gatha: 109-111 Kalash: 63.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
१९१
(वसन्ततिलका)
जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव
कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशंक यैव
एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय
संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ
।।६३।।
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।।१०९।।
तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो
मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।।११०।।
एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा
ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ।।१११।।

श्लोकार्थ :[यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति ] यदि पुद्गलकर्मको जीव नहीं करता [तर्हि ] तो फि र [तत् कः कुरुते ] उसे कौन करता है ?’ [इति अभिशंक या एव ] ऐसी आशंका करके, [एतर्हि ] अब [तीव्र-रय-मोह-निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाले मोहका (कर्तृकर्मत्वके अज्ञानका) नाश करनेके लिये, यह कहते हैं कि[पुद्गलकर्मकर्तृ संकीर्त्यते ] ‘पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है’; [शृणुत ] इसलिये (हे ज्ञानके इच्छुक पुरुषों !) इसे सुनो ।६३।

अब यह कहते हैं कि पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है :
सामान्य प्रत्यय चार, निश्चय बन्धके कर्ता कहे
मिथ्यात्व अरु अविरमण, योगकषाय ये ही जानने ।।१०९।।
फि र उनहिका दर्शा दिया, यह भेद तेर प्रकारका
मिथ्यात्व गुणस्थानादि ले, जो चरमभेद सयोगिका ।।११०।।
पुद्गलकरमके उदयसे, उत्पन्न इससे अजीव वे
वे जो करें कर्मों भले, भोक्ता भि नहिं जीवद्रव्य है ।।१११।।