यदि यथा जीवस्य तन्मयत्वाज्जीवादनन्य उपयोगस्तथा जडः क्रोधोऽप्यनन्य एवेति
प्रतिपत्तिस्तदा चिद्रूपजडयोरनन्यत्वाज्जीवस्योपयोगमयत्ववज्जडक्रोधमयत्वापत्तिः । तथा सति तु य एव
जीवः स एवाजीव इति द्रव्यान्तरलुप्तिः । एवं प्रत्ययनोकर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्वप्रतिपत्तावयमेव
दोषः । अथैतद्दोषभयादन्य एवोपयोगात्मा जीवोऽन्य एव जडस्वभावः क्रोधः इत्यभ्युपगमः, तर्हि
यथोपयोगात्मनो जीवादन्यो जडस्वभावः क्रोधः तथा प्रत्ययनोकर्मकर्माण्यप्यन्यान्येव, जड-
स्वभावत्वाविशेषात् । नास्ति जीवप्रत्यययोरेकत्वम् ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
१९५
१ प्रतिपत्ति = प्रतीति; प्रतिपादन । २ चिद्रूप = जीव ।
अनन्यत्व [आपन्नम् ] आ गया । [एवम् च ] और ऐसा होने पर, [इह ] इस जगतमें [यः तु ]
जो [जीवः ] जीव है [सः एव तु ] वही [नियमतः ] नियमसे [तथा ] उसीप्रकार [अजीवः ]
अजीव सिद्ध हुआ; (दोनोंके अनन्यत्व होनेमें यह दोष आया;) [प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम् ] प्रत्यय,
नोकर्म और कर्मके [एकत्वे ] एकत्वमें अर्थात् अनन्यत्वमें भी [अयम् दोषः ] यही दोष आता
है । [अथ ] अब यदि (इस दोषके भयसे) [ते ] तेरे मतमें [क्रोधः ] क्रोध [अन्यः ] अन्य है
और [उपयोगात्मकः ] उपयोगस्वरूप [चेतयिता ] आत्मा [अन्यः ] अन्य [भवति ] है, तो [यथा
क्रोधः ] जैसे क्रोध है [तथा ] वैसे ही [प्रत्ययाः ] प्रत्यय, [कर्म ] कर्म और [नोकर्म अपि ]
नोकर्म भी [अन्यत् ] आत्मासे अन्य ही हैं ।
टीका : — जैसे जीवके उपयोगमयत्वके कारण जीवसे उपयोग अनन्य (अभिन्न) है
उसीप्रकार जड़ क्रोध भी अनन्य ही है यदि ऐसी १प्रतिपत्ति की जाये, तो २चिद्रूप और जड़के
अनन्यत्वके कारण जीवको उपयोगमयताकी भाँति जड़ क्रोधमयता भी आ जायेगी । और ऐसा
होनेसे तो जो जीव है वही अजीव सिद्ध होगा, — इसप्रकार अन्य द्रव्यका लोप हो जायेगा ।
इसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी जीवसे अनन्य हैं ऐसी प्रतिपत्तिमें भी यही दोष आता है ।
अब यदि इस दोषके भयसे यह स्वीकार किया जाये कि उपयोगात्मक जीव अन्य ही है और
जड़स्वभाव क्रोध अन्य ही है, तो जैसे उपयोगात्मक जीवसे जड़स्वभाव क्रोध अन्य है उसीप्रकार
प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी अन्य ही हैं, क्योंकि उनके जड़ स्वभावत्वमें अन्तर नहीं है (अर्थात्
जैसे क्रोध जड़ है उसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी जड़ हैं) । इसप्रकार जीव और प्रत्ययमें
एकत्व नहीं है ।
भावार्थ : — मिथ्यात्वादि आस्रव तो जड़स्वभाव हैं और जीव चेतनस्वभाव है । यदि जड़
और चेतन एक हो जायें तो भिन्न द्रव्योंके लोप होनेका महा दोष आता है । इसलिये निश्चयनयका
यह सिद्धान्त है कि आस्रव और आत्मामें एकत्व नहीं है ।।११३ से ११५।।