जीवस्य परिणामित्वं साधयति —
ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं ।
जदि एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि ।।१२१।।
अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं ।
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ।।१२२।।
पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं ।
तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो ।।१२३।।
अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी ।
कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा ।।१२४।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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परिणामशक्तिः ] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [खलु अविघ्ना स्थिता ] निर्विघ्न सिद्ध हुई । [तस्यां
स्थितायां ] उसके सिद्ध होने पर, [सः आत्मनः यम् भावं करोति ] पुद्गलद्रव्य अपने जिस भावको
क रता है [तस्य सः एव कर्ता ] उसका वह पुद्गलद्रव्य ही क र्ता है ।
भावार्थ : — सर्व द्रव्य परिणमनस्वभाववाले हैं, इसलिये वे अपने अपने भावके स्वयं ही
कर्ता हैं । पुद्गलद्रव्य भी अपने जिस भावको करता है उसका वह स्वयं ही कर्ता है ।।६४।।
अब जीवका परिणामित्व सिद्ध करते हैं : —
नहिं बद्धकर्म, स्वयं नहीं जो क्रोधभावों परिणमे ।
तो जीव यह तुझ मतविषैं परिणमनहीन बने अरे ! १२१।।
क्रोधादिभावों जो स्वयं नहिं जीव आप हि परिणमे ।
संसारका हि अभाव अथवा सांख्यमत निश्चित हुवे ! १२२।।
जो क्रोध — पुद्गलकर्म — जीवको, परिणमाये क्रोधमें ।
क्यों क्रोध उसको परिणमाये जो स्वयं नहिं परिणमे ? १२३।।
अथवा स्वयं जीव क्रोधभावों परिणमे — तुझ बुद्धि है ।
तो क्रोध जीवको परिणमाये क्रोधमें — मिथ्या बने ।।१२४।।