गाथार्थ : — सांख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति आचार्य क हते हैं कि भाई ! [एषः ] यह [जीवः ] जीव [कर्मणि ] क र्ममें [स्वयं ] स्वयं [बद्धः न ] नहीं बँधा और [क्रोधादिभिः ] क्रोधादिभावसे [स्वयं ] स्वयं [न परिणमते ] नहीं परिणमता [यदि तव ] यदि तेरा यह मत है [तदा ] तो वह (जीव) [अपरिणामी ] अपरिणामी [भवति ] सिद्ध होता है; और [जीवे ] जीव [स्वयं ] स्वयं [क्रोधादिभिः भावैः ] क्रोधादिभावरूप [अपरिणममाने ] नहीं परिणमता होनेसे, [संसारस्य ] संसारका [अभावः ] अभाव [प्रसजति ] सिद्ध होता है [वा ] अथवा [सांख्यसमयः ] सांख्यमतका प्रसंग आता है
[पुद्गलकर्म क्रोधः ] और पुद्गलक र्म जो क्रोध है वह [जीवं ] जीवको [क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [परिणामयति ] परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि [स्वयम् अपरिणममानं ] स्वयं नहीं परिणमते हुए [तं ] उस जीवको [क्रोधः ] क्रोध [कथं नु ] कैसे [परिणामयति ] परिणमन करा सकता है ? [अथ ] अथवा यदि [आत्मा ] आत्मा [स्वयम् ]