यदि कर्मणि स्वयमबद्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा स
किलापरिणाम्येव स्यात् । तथा सति संसाराभावः । अथ पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन
परिणामयति ततो न संसाराभाव इति तर्कः । किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा पुद्गलकर्म
क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयेत् ? न तावत्स्वयमपरिणममानः परेण परिणमयितुं पार्येत;
न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते । स्वयं परिणममानस्तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत;
न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते । ततो जीवः परिणामस्वभावः स्वयमेवास्तु । तथा सति गरुड-
ध्यानपरिणतः साधकः स्वयं गरुड इवाज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः
स्यात् । इति सिद्धं जीवस्य परिणामस्वभावत्वम् ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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अपने आप [क्रोधभावेन ] क्रोधभावसे [परिणमते ] परिणमता है [एषा ते बुद्धिः ] ऐसी तेरी बुद्धि
हो, तो [क्रोधः ] क्रोध [जीवं ] जीवको [क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [परिणामयति ] परिणमन कराता
है [इति ] यह कथन [मिथ्या ] मिथ्या सिद्ध होता है ।
इसलिये यह सिद्धान्त है कि [क्रोधोपयुक्तः ] क्रोधमें उपयुक्त (अर्थात् जिसका उपयोग
क्रोधाकार परिणमित हुआ है ऐसा) [आत्मा ] आत्मा [क्रोधः ] क्रोध ही है, [मानोपयुक्तः ] मानमें
उपयुक्त आत्मा [मानः एव ] मान ही है, [मायोपयुक्तः ] मायामें उपयुक्त आत्मा [माया ] माया
है [च ] और [लोभोपयुक्तः ] लोभमें उपयुक्त आत्मा [लोभः ] लोभ [भवति ] है ।
टीका : — यदि जीव कर्ममें स्वयं न बँधता हुआ क्रोधादिभावसे स्वयमेव नहीं परिणमता
हो, तो वह वास्तवमें अपरिणामी ही सिद्ध होगा । ऐसा होनेसे संसारका अभाव होगा । यदि यहाँ
यह तर्क उपस्थित किया जाये कि ‘‘पुद्गलकर्म जो क्रोधादिक है वह जीवको क्रोधादिभावरूप
परिणमाता है, इसलिये संसारका अभाव नहीं होता’’, तो उसका निराकरण दो पक्ष लेकर इसप्रकार
किया जाता है कि — पुद्गलकर्म क्रोधादिक है वह स्वयं अपरिणमते हुए जीवको क्रोधादिभावरूप
परिणमाता है, या स्वयं परिणते हुएको ? प्रथम, स्वयं अपरिणमते हुएको परके द्वारा नहीं परिणमाया
जा सकता; क्योंकि (वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता । और स्वयं
परिणमते हुएको तो अन्य परिणमानेवालेकी अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तुकी शक्तियाँ परकी
अपेक्षा नहीं रखती । (इसप्रकार दोनों पक्ष असत्य हैं ।) इसलिये जीव परिणमनस्वभाववाला
स्वयमेव हो । ऐसा होनेसे, जैसे गरुड़के ध्यानरूप परिणमित मंत्रसाधक स्वयं गरुड़ है उसीप्रकार,
अज्ञानस्वभाववाले क्रोधादिरूप जिसका उपयोग परिणमित हुआ है ऐसा जीव ही स्वयं क्रोधादि
है । इसप्रकार जीवका परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ ।
भावार्थ : — जीव परिणामस्वभाव है । जब अपना उपयोग क्रोधादिरूप परिणमता है तब
स्वयं क्रोधादिरूप ही होता है ऐसा जानना ।।१२१ से १२५।।