जीवपुद्गलकर्मणोरेकबन्धपर्यायत्वेन तदात्वे व्यतिरेकाभावाज्जीवे बद्धस्पृष्टं कर्मेति व्यवहार- नयपक्षः । जीवपुद्गलकर्मणोरनेकद्रव्यत्वेनात्यन्तव्यतिरेकाज्जीवेऽबद्धस्पृष्टं कर्मेति निश्चयनयपक्षः ।
गाथार्थ : — [जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [बद्धं ] (उसके प्रदेशोंके साथ) बँधा हुआ है [च ] तथा [स्पृष्टं ] स्पर्शित है [इति ] ऐसा [व्यवहारनयभणितम् ] व्यवहारनयका कथन है [तु ] और [जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [अबद्धस्पृष्टं ] अबद्ध और अस्पर्शित [भवति ] है ऐसा [शुद्धनयस्य ] शुद्धनयका कथन है ।
टीका : — जीवको और पुद्गलकर्मको एकबन्धपर्यायपनेसे देखने पर उनमें उस कालमें भिन्नताका अभाव है, इसलिये जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट है ऐसा व्यवहारनयका पक्ष है । जीवको तथा पुद्गलकर्मको अनेकद्रव्यपनेसे देखने पर उनमें अत्यन्त भिन्नता है, इसलिये जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है ऐसा निश्चयनयका पक्ष है ।।१४१।।
किन्तु इससे क्या ? जो आत्मा उन दोनों नयपक्षोंको पार कर चुका है वही समयसार है, — यह अब गाथा द्वारा कहते हैं : —
गाथार्थ : — [जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [बद्धम् ] बद्ध है अथवा [अबद्धं ] अबद्ध है — [एवं तु ] इसप्रकार तो [नयपक्षम् ] नयपक्ष [जानीहि ] जानो; [पुनः ] किन्तु [यः ] जो [पक्षातिक्रान्तः ] पक्षातिक्रान्त (पक्षको उल्लंघन करनेवाला) [भण्यते ] कहलाता है [सः ] वह [समयसारः ] समयसार (अर्थात् निर्विक ल्प शुद्ध आत्मतत्त्व) है ।