(रथोद्धता)
इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत्
पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः ।
यस्य विस्फु रणमेव तत्क्षणं
कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ।।९१।।
पक्षातिक्रान्तस्य किं स्वरूपमिति चेत् —
दोण्ह वि णयाण भणिदं जाणदि णवरं तु समयपडिबद्धो ।
ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचि वि णयपक्खपरिहीणो ।।१४३।।
द्वयोरपि नययोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्धः ।
न तु नयपक्षं गृह्णाति किञ्चिदपि नयपक्षपरिहीनः ।।१४३।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
नयपक्षकक्षाको (नयपक्षकी भूमिको) [व्यतीत्य ] उल्लंघन करके (तत्त्ववेत्ता) [अन्तः बहिः ]
भीतर और बाहर [समरसैकरसस्वभावं ] समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे
[अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम् ] अनुभूतिमात्र एक अपने भावको ( — स्वरूपको) [उपयाति ]
प्राप्त करता है ।९०।
अब नयपक्षके त्यागकी भावनाका अन्तिम काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [पुष्कल-उत्-चल-विकल्प-वीचिभिः उच्छलत् ] विपुल, महान, चञ्चल
विकल्परूपी तरंगोंके द्वारा उठते हुए [इद्म् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम् ] इस समस्त इन्द्रजालको
[यस्य विस्फु रणम् एव ] जिसका स्फु रण मात्र ही [तत्क्षणं ] तत्क्षण [अस्यति ] उड़ा देता है [तत्
चिन्महः अस्मि ] वह चिन्मात्र तेजःपुञ्ज मैं हूँ ।
भावार्थ : — चैतन्यका अनुभव होने पर समस्त नयोंके विकल्परूपी इन्द्रजाल उसी क्षण
विलयको प्राप्त होता है; ऐसा चित्प्रकाश मैं हूँ ।९१।
‘पक्षातिक्रान्तका स्वरूप क्या है ?’ इसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं : —
नयद्वयकथन जाने हि केवल समयमें प्रतिबद्ध जो ।
नयपक्ष कुछ भी नहिं ग्रहे, नयपक्षसे परिहीन सो ।।१४३।।
गाथार्थ : — [नयपक्षपरिहीनः ] नयपक्षसे रहित जीव, [समयप्रतिबद्धः ] समयसे प्रतिबद्ध