(उपजाति)
एकस्य भातो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात-
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८९।।
(वसन्ततिलका)
स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला-
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् ।
अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ।।९०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८८।
श्लोकार्थ : — [भातः ] जीव ‘भात’ (प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष) है [एकस्य ]
ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव ‘भात’ नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष
हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ]
दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ]
निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे
चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभूत होता है) ।
भावार्थ : — बद्ध अबद्ध, मूढ़ अमूढ़, रागी अरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता
अभोक्ता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त
अनन्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेद्य, भात
अभात इत्यादि नयोंके पक्षपात हैं । जो पुरुष नयोंके कथनानुसार यथायोग्य विवक्षापूर्वक तत्त्वका —
वस्तुस्वरूपका निर्णय करके नयोंके पक्षपातको छोड़ता है उसे चित्स्वरूप जीवका चित्स्वरूपरूप
अनुभव होता है ।
जीवमें अनेक साधारण धर्म हैं, परन्तु चित्स्वभाव उसका प्रगट अनुभवगोचर असाधारण
धर्म है, इसलिये उसे मुख्य करके यहाँ जीवको चित्स्वरूप कहा है ।८९।
अब उपरोक्त २० कलशोंके कथनका उपसंहार करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [स्वेच्छा-समुच्छलद्-अनल्प-विकल्प-जालाम् ]
जिसमें बहुतसे विकल्पोंका जाल अपने आप उठता है ऐसी [महतीं ] बड़ी [नयपक्षकक्षाम् ]