(स्वागता) चित्स्वभावभरभावितभावा- भावभावपरमार्थतयैकम् । बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारम् ।।९२।।
वस्तुस्वरूपको केवल जानता ही है तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवलीकी भाँति वीतराग जैसा
ही होता है ऐसा जानना ।।१४३।।
श्लोकार्थ : — [चित्स्वभाव-भर-भावित-भाव-अभाव-भाव-परमार्थतया एकम् ] चित्- स्वभावके पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किये जाते हैं — ऐसा जिसका परमार्थ स्वरूप है, इसलिये जो एक है ऐसे [अपारम् समयसारम् ] अपार समयसारको मैं, [समस्तां बन्धपद्धतिम् ] समस्त बन्धपद्धतिको [अपास्य ] दूर करके अर्थात् कर्मोदयसे होनेवाले सर्व भावोंको छोड़कर, [चेतये ] अनुभव करता हूँ ।
भावार्थ : — निर्विकल्प अनुभव होने पर, जिसके केवलज्ञानादि गुणोंका पार नहीं है ऐसे समयसाररूपी परमात्माका अनुभव ही वर्तता है, ‘मैं अनुभव करता हूँ ’ ऐसा भी विकल्प नहीं होता — ऐसा जानना ।९२।