अयमेक एव केवलं सम्यग्दर्शनज्ञानव्यपदेशं किल लभते । यः खल्वखिलनय-पक्षाक्षुण्णतया
विश्रान्तसमस्तविकल्पव्यापारः स समयसारः । यतः प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टम्भेन ज्ञानस्वभावमात्मानं
निश्चित्य, ततः खल्वात्मख्यातये, परख्यातिहेतूनखिला एवेन्द्रियानिन्द्रिय-बुद्धीरवधार्य
आत्माभिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वः, तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनानेक-विकल्पैराकुलयन्तीः
श्रुतज्ञानबुद्धीरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यन्तमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत
एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तमनाकुलमेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि तरन्तमिवाखण्ड-
प्रतिभासमयमनन्तं विज्ञानघनं परमात्मानं समयसारं विन्दन्नेवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च; ततः
सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च समयसार एव
।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
२२९
है [सः ] वह [समयसारः ] समयसार है; [एषः ] इसीको ( – समयसारको ही) [केवलं ] केवल
[सम्यग्दर्शनज्ञानम् ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान [इति ] ऐसी [व्यपदेशम् ] संज्ञा (नाम) [लभते ]
मिलती है । (नामोंके भिन्न होने पर भी वस्तु एक ही है ।)
टीका : — जो वास्तवमें समस्त नयपक्षोंके द्वारा खंडित न होनेसे जिसका समस्त
विकल्पोंका व्यापार रुक गया है ऐसा है, सो समयसार है; वास्तवमें इस एकको ही केवल
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका नाम प्राप्त है । (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समयसारसे अलग नहीं
है, एक ही है ।)
प्रथम, श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करके, और फि र आत्माकी
प्रगट प्रसिद्धिके लिये, पर पदार्थकी प्रसिद्धिकी कारणभूत जो इन्द्रियों द्वारा और मनके द्वारा
प्रवर्तमान बुद्धियाँ उन सबको मर्यादामें लाकर जिसने मतिज्ञान – तत्त्वको ( – मतिज्ञानके स्वरूपको)
आत्मसन्मुख किया है ऐसा, तथा जो नाना प्रकारके नयपक्षोंके आलम्बनसे होनेवाले अनेक
विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोंको भी मर्यादामें लाकर श्रुतज्ञान-
तत्त्वको भी आत्मसन्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्परहित होकर, तत्काल निज रससे ही प्रगट
होनेवाले, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, अनाकुल, केवल एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानों तैरता हो
ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता
है उसीसमय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है (अर्थात् उसकी श्रद्धा की जाती है) और ज्ञात
होता है, इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है
।
भावार्थ : — आत्माको पहले आगमज्ञानसे ज्ञानस्वरूप निश्चय करके फि र इन्द्रियबुद्धिरूप
मतिज्ञानको ज्ञानमात्रमें ही मिलाकर, तथा श्रुतज्ञानरूपी नयोंके विकल्पोंको मिटाकर श्रुतज्ञानको भी
निर्विकल्प करके, एक अखण्ड प्रतिभासका अनुभव करना ही ‘सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान’के