सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।।९३।।
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् ।
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।।९४।।
श्लोकार्थ : — [नयानां पक्षैः विना ] नयोंके पक्षोंके रहित, [अचलं अविकल्पभावम् ] अचल निर्विकल्पभावको [आक्रामन् ] प्राप्त होता हुआ [यः समयस्य सारः भाति ] जो समयका (आत्माका) सार प्रकाशित होता है [सः एषः ] वह यह समयसार (शुद्ध आत्मा) — [निभृतैः स्वयम् आस्वाद्यमानः ] जो कि निभृत (निश्चल, आत्मलीन) पुरुषोंके द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है ( – अनुभवमें आता है) वह — [विज्ञान-एक-रसः भगवान् ] विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, [पुण्यः पुराणः पुमान् ] पवित्र पुराण पुरुष है; चाहे [ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं ] ज्ञान कहो या दर्शन वह यह (समयसार) ही है; [अथवा किम् ] अथवा अधिक क्या कहें ? [यत् किंचन अपि अयम् एकः ] जो कुछ है सो यह एक ही है ( – मात्र भिन्न-भिन्न नामसे कहा जाता है) ।९३।
श्लोकार्थ : — [तोयवत् ] जैसे पानी अपने समूहसे च्युत होता हुआ दूर गहन वनमें बह रहा हो उसे दूरसे ही ढालवाले मार्गके द्वारा अपने समूहकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये; तो फि र वह पानी, पानीको पानीके समूहकी ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूहमें आ मिलता है; इसीप्रकार [अयं ] यह आत्मा [निज-ओघात् च्युतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत होकर [भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजालोंके गहन वनमें दूर परिभ्रमण कर रहा था उसे [दूरात् एव ] दूरसे ही [विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा [निज-ओघं बलात् नीतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिए