(शार्दूलविक्रीडित)
आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।।९३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् ।
विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्माहरन्
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।।९४।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
नामको प्राप्त करता है; सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहीं अनुभवसे भिन्न नहीं हैं ।।१४४।।
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [नयानां पक्षैः विना ] नयोंके पक्षोंके रहित, [अचलं अविकल्पभावम् ]
अचल निर्विकल्पभावको [आक्रामन् ] प्राप्त होता हुआ [यः समयस्य सारः भाति ] जो समयका
(आत्माका) सार प्रकाशित होता है [सः एषः ] वह यह समयसार (शुद्ध आत्मा) — [निभृतैः
स्वयम् आस्वाद्यमानः ] जो कि निभृत (निश्चल, आत्मलीन) पुरुषोंके द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है
( – अनुभवमें आता है) वह — [विज्ञान-एक-रसः भगवान् ] विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा
भगवान् है, [पुण्यः पुराणः पुमान् ] पवित्र पुराण पुरुष है; चाहे [ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं ] ज्ञान कहो
या दर्शन वह यह (समयसार) ही है; [अथवा किम् ] अथवा अधिक क्या कहें ? [यत् किंचन
अपि अयम् एकः ] जो कुछ है सो यह एक ही है ( – मात्र भिन्न-भिन्न नामसे कहा जाता है) ।९३।
अब यह कहते हैं कि यह आत्मा ज्ञानसे च्युत हुआ था सो ज्ञानमें ही आ मिलता है ।
श्लोकार्थ : — [तोयवत् ] जैसे पानी अपने समूहसे च्युत होता हुआ दूर गहन वनमें बह
रहा हो उसे दूरसे ही ढालवाले मार्गके द्वारा अपने समूहकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये; तो
फि र वह पानी, पानीको पानीके समूहकी ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूहमें आ
मिलता है; इसीप्रकार [अयं ] यह आत्मा [निज-ओघात् च्युतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत
होकर [भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजालोंके गहन वनमें दूर परिभ्रमण
कर रहा था उसे [दूरात् एव ] दूरसे ही [विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा
[निज-ओघं बलात् नीतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिए