यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् ।
यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।।९६।।
एक विज्ञानरसवाला ही अनुभवमें आता है ऐसा वह आत्मा, [आत्मानम् आत्मनि एव आहरन् ]
आत्माको आत्मामें ही खींचता हुआ (अर्थात् ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर), [सदा
गतानुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है ।
भावार्थ : — जैसे पानी, अपने (पानीके) निवासस्थलसे किसी मार्गसे बाहर निकलकर वनमें अनेक स्थानों पर बह निकले; और फि र किसी ढालवाले मार्ग द्वारा, ज्योंका त्यों अपने निवास-स्थानमें आ मिले; इसीप्रकार आत्मा भी मिथ्यात्वके मार्गसे स्वभावसे बाहर निकलकर विकल्पोंके वनमें भ्रमण करता हुआ किसी भेदज्ञानरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा स्वयं ही अपनेको खींचता हुआ अपने विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है ।९४।
अब कर्ताकर्म अधिकारका उपसंहार करते हुए, कुछ कलशरूप काव्य कहते हैं; उनमेंसे प्रथम कलशमें कर्ता और कर्मका संक्षिप्त स्वरूप कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [विकल्पकः परं कर्ता ] विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और [विकल्पः केवलम् कर्म ] विकल्प ही केवल कर्म है; (अन्य कोई कर्ता-कर्म नहीं है;) [सविकल्पस्य ] जो जीव विकल्पसहित है उसका [कर्तृकर्मत्वं ] कर्ताकर्मपना [जातु ] कभी [नश्यति न ] नष्ट नहीं होता ।
भावार्थ : — जब तक विकल्पभाव है तब तक कर्ताकर्मभाव है; जब विकल्पका अभाव हो जाता है तब कर्ताकर्मभावका भी अभाव हो जाता है ।९५।