ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः ।
ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ।।९७।।
क्वचित् न हि वेत्ति ] जो करता है वह कभी जानता नहीं [तु ] और [यः वेत्ति सः क्वचित् न
करोति ] जो जानता है वह कभी करता नहीं ।
श्लोकार्थ : — [करोतौ अन्तः ज्ञप्तिः न हि भासते ] करनेरूप क्रियाके भीतर जाननेरूप क्रिया भासित नहीं होती [च ] और [ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते ] जाननेरूप क्रियाके भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती; [ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने ] इसलिये ज्ञप्तिक्रिया और ‘करोति’ क्रिया दोनों भिन्न है; [च ततः इति स्थितं ] और इससे यह सिद्ध हुआ कि [ज्ञाता कर्ता न ] जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ।
भावार्थ : — जब आत्मा इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको करता हूँ’ तब तो वह कर्ताभावरूप परिणमनक्रियाके करनेसे अर्थात् ‘करोति’-क्रियाके करनेसे कर्ता ही है और जब वह इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको जानता हूँ’ तब ज्ञाताभावरूप परिणमन करनेसे अर्थात् ज्ञप्तिक्रियाके करनेसे ज्ञाता ही है ।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अविरत-सम्यग्दृष्टि आदिको जब तक चारित्रमोहका उदय रहता है तब तक वह कषायरूप परिणमन करता है, इसलिये उसका वह कर्ता कहलाता है या नहीं ? उसका समाधान : — अविरत-सम्यग्दृष्टि इत्यादिके श्रद्धा-ज्ञानमें परद्रव्यके स्वामित्वरूप कर्तृत्वका अभिप्राय नहीं है; जो कषायरूप परिणमन है वह उदयकी १बलवत्ताके कारण है; वह उसका ज्ञाता है; इसलिये उसके अज्ञान सम्बन्धी कर्तृत्व नहीं है । निमित्तकी बलवत्तासे होनेवाले परिणमनका फल किंचित् होता है वह संसारका कारण नहीं है । जैसे वृक्षकी जड़ काट देनेके बाद वह वृक्ष कुछ समय तक रहे अथवा न रहे — प्रतिक्षण उसका नाश ही होता जाता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझना ।९७। १ देखो गाथा १३१के भावार्थके नीचेका फू टनोट ।