Samaysar (Hindi). Kalash: 97.

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(इन्द्रवज्रा)
ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः
ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः
ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने
ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च
।।९७।।
२३२
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
और [यः वेत्ति सः तु केवलम् वेत्ति ] जो जानता है सो केवल जानता ही है; [यः करोति सः
क्वचित् न हि वेत्ति ]
जो करता है वह कभी जानता नहीं [तु ] और [यः वेत्ति सः क्वचित् न
करोति ]
जो जानता है वह कभी करता नहीं
भावार्थ :जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं ।९६।
अब यह कहते हैं कि इसीप्रकार करने और जाननेरूप दोनों क्रियाएँ भिन्न हैं :
श्लोकार्थ :[करोतौ अन्तः ज्ञप्तिः न हि भासते ] करनेरूप क्रियाके भीतर जाननेरूप
क्रिया भासित नहीं होती [च ] और [ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते ] जाननेरूप क्रियाके भीतर
करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती; [ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने ] इसलिये ज्ञप्तिक्रिया और
‘करोति’ क्रिया दोनों भिन्न है; [च ततः इति स्थितं ] और इससे यह सिद्ध हुआ कि [ज्ञाता कर्ता
न ]
जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है
भावार्थ :जब आत्मा इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको करता हूँ’ तब
तो वह कर्ताभावरूप परिणमनक्रियाके करनेसे अर्थात् ‘करोति’-क्रियाके करनेसे कर्ता ही है और
जब वह इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको जानता हूँ’ तब ज्ञाताभावरूप परिणमन
करनेसे अर्थात् ज्ञप्तिक्रियाके करनेसे ज्ञाता ही है
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अविरत-सम्यग्दृष्टि आदिको जब तक चारित्रमोहका उदय
रहता है तब तक वह कषायरूप परिणमन करता है, इसलिये उसका वह कर्ता कहलाता है या
नहीं ? उसका समाधान :
अविरत-सम्यग्दृष्टि इत्यादिके श्रद्धा-ज्ञानमें परद्रव्यके स्वामित्वरूप
कर्तृत्वका अभिप्राय नहीं है; जो कषायरूप परिणमन है वह उदयकी बलवत्ताके कारण है; वह
उसका ज्ञाता है; इसलिये उसके अज्ञान सम्बन्धी कर्तृत्व नहीं है निमित्तकी बलवत्तासे होनेवाले
परिणमनका फल किंचित् होता है वह संसारका कारण नहीं है जैसे वृक्षकी जड़ काट देनेके
बाद वह वृक्ष कुछ समय तक रहे अथवा न रहेप्रतिक्षण उसका नाश ही होता जाता है, इसीप्रकार
यहाँ भी समझना ।९७।
१ देखो गाथा १३१के भावार्थके नीचेका फू टनोट