दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव ।
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण ।।१०१।।
भावार्थ : — अज्ञानसे एक ही कर्म दो प्रकार दिखाई देता था उसे सम्यक्ज्ञानने एक प्रकारका बताया है । ज्ञान पर जो मोहरूप रज चढ़ी हुई थी उसे दूर कर देनसे यथार्थ ज्ञान प्रगट हुआ है; जैसे बादल या कुहरेके पटलसे चन्द्रमाका यथार्थ प्रकाशन नहीं होता, किन्तु आवरणके दूर होने पर वह यथार्थ प्रकाशमान होता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए ।१००।
श्लोकार्थ : — (शूद्राके पेटसे एक ही साथ जन्मको प्राप्त दो पुत्रोंमेंसे एक ब्राह्मणके यहाँ और दूसरा शूद्राके घर पला । उनमेंसे) [एक : ] एक तो [ब्राह्मणत्व-अभिमानात् ] ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ इसप्रकार ब्राह्मणत्वके अभिमानसे [दूरात् ] दूरसे ही [मदिरां ] मदिराका [त्यजति ] त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः ] दूसरा [अहम् स्वयम् शूद्रः इति ] ‘मैं स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर [नित्यं ] नित्य [तया एव ] मदिरासे ही [स्नाति ] स्नान क रता है अर्थात् उसे पवित्र मानता है । [एतौ द्वौ अपि ] यद्यपि वे दोनों [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ ] शूड्डद्राके पेटसे एक ही साथ उत्पन्न हुए हैं वे [साक्षात् शूद्रौ ] (परमार्थतः) दोनों साक्षात् शूद्र हैं, [अपि च ] तथापि [जातिभेदभ्रमेण ] जातिभेदके भ्रम सहित [चरतः ] प्रवृत्ति (आचरण) क रते हैं । इसीप्रकार पुण्य और पापके सम्बन्धमें समझना चाहिए ।
भावार्थ : — पुण्य – पाप दोनों विभावपरिणतिसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये दोनों बन्धनरूप ही हैं । व्यवहारदृष्टिसे भ्रमवश उनकी प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न भासित होनेसे, वे अच्छे और बूरे रूपसे दो प्रकार दिखाई देते हैं । परमार्थदृष्टि तो उन्हें एकरूप ही, बन्धरूप ही, बुरा ही जानती है ।१०१।
किस रीत होय सुशील जो संसारमें दाखिल करे ? १४५।।