Samaysar (Hindi). Gatha: 145 Kalash: 101.

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(मन्दाक्रान्ता)
एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना-
दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव
द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण
।।१०१।।
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणहं सुसीलं
कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।।१४५।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
भावार्थ :अज्ञानसे एक ही कर्म दो प्रकार दिखाई देता था उसे सम्यक्ज्ञानने एक
प्रकारका बताया है ज्ञान पर जो मोहरूप रज चढ़ी हुई थी उसे दूर कर देनसे यथार्थ ज्ञान प्रगट
हुआ है; जैसे बादल या कुहरेके पटलसे चन्द्रमाका यथार्थ प्रकाशन नहीं होता, किन्तु आवरणके
दूर होने पर वह यथार्थ प्रकाशमान होता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए
।१००।
अब पुण्य-पापके स्वरूपका दृष्टान्तरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :(शूद्राके पेटसे एक ही साथ जन्मको प्राप्त दो पुत्रोंमेंसे एक ब्राह्मणके
यहाँ और दूसरा शूद्राके घर पला उनमेंसे) [एक : ] एक तो [ब्राह्मणत्व-अभिमानात् ] ‘मैं
ब्राह्मण हूँ’ इसप्रकार ब्राह्मणत्वके अभिमानसे [दूरात् ] दूरसे ही [मदिरां ] मदिराका [त्यजति ]
त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः ] दूसरा [अहम् स्वयम् शूद्रः इति ] ‘मैं
स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर [नित्यं ] नित्य [तया एव ] मदिरासे ही [स्नाति ] स्नान क रता है अर्थात्
उसे पवित्र मानता है
[एतौ द्वौ अपि ] यद्यपि वे दोनों [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ ] शूद्राके
पेटसे एक ही साथ उत्पन्न हुए हैं वे [साक्षात् शूद्रौ ] (परमार्थतः) दोनों साक्षात् शूद्र हैं, [अपि
च ]
तथापि [जातिभेदभ्रमेण ] जातिभेदके भ्रम सहित [चरतः ] प्रवृत्ति
(आचरण) क रते हैं
इसीप्रकार पुण्य और पापके सम्बन्धमें समझना चाहिए
भावार्थ :पुण्यपाप दोनों विभावपरिणतिसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये दोनों बन्धनरूप ही
हैं व्यवहारदृष्टिसे भ्रमवश उनकी प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न भासित होनेसे, वे अच्छे और बूरे रूपसे दो
प्रकार दिखाई देते हैं परमार्थदृष्टि तो उन्हें एकरूप ही, बन्धरूप ही, बुरा ही जानती है ।१०१।
अब शुभाशुभ कर्मके स्वभावका वर्णन गाथामें करते हैं :
है कर्म अशुभ कुशील अरु जानो सुशील शुभकर्मको !
किस रीत होय सुशील जो संसारमें दाखिल करे ? १४५
।।