(उपजाति)
हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां
सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः ।
तद्बन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ।।१०२।।
अथोभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति —
सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं ।
बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।१४६।।
सौवर्णिकमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम् ।
बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ।।१४६।।
शुभमशुभं च कर्माविशेषेणैव पुरुषं बध्नाति, बन्धत्वाविशेषात्, कांचनकालायसनिगलवत्।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पुण्य-पाप अधिकार
२३९
श्लोकार्थ : — [हेतु-स्वभाव-अनुभव-आश्रयाणां ] हेतु, स्वभाव, अनुभव और
आश्रय — इन चारोंका [सदा अपि ] सदा ही [अभेदात् ] अभेद होनेसे [न हि क र्मभेदः ] क र्ममें
निश्चयसे भेद नहीं है; [तद् समस्तं स्वयं ] इसलिये, समस्त क र्म स्वयं [खलु ] निश्चयसे
[बन्धमार्ग-आश्रितम् ] बंधमार्गके आश्रित है और [बन्धहेतुः ] बंधका कारण है, अतः [एक म्
इष्टं ] क र्म एक ही माना गया है — उसे एक ही मानना योग्य है ।१०२।
अब यह सिद्ध करते हैं कि — (शुभाशुभ) दोनों कर्म अविशेषतया (बिना किसी अन्तरके)
बन्धके कारण हैं : —
ज्यों लोहकी त्यों कनककी जंजीर जकड़े पुरुषको ।
इस रीतसे शुभ या अशुभ कृत कर्म बांधे जीवको ।।१४६।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [सौवर्णिक म् ] सोनेकी [निगलं ] बेड़ी [अपि ] भी
[पुरुषम् ] पुरुषको [बध्नाति ] बांँधती है और [कालायसम् ] लोहेकी [अपि ] भी बाँधती है,
[एवं ] इसीप्रकार [शुभम् वा अशुभम् ] शुभ तथा अशुभ [कृतं क र्म ] किया हुआ क र्म [जीवं ]
जीवको [बध्नाति ] (अविशेषतया) बाँधता है ।
टीका : — जैसे सोनेकी और लोहेकी बेड़ी बिना किसी भी अन्तरके पुरुषको बाँधती है,