कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ, बन्धहेतुत्वात्, कुशीलमनोरमा- मनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत् ।
अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टान्तेन समर्थयते — क्योंकि बन्धनभावकी अपेक्षासे उनमें कोई अन्तर नहीं है, इसीप्रकार शुभ और अशुभ कर्म बिना किसी भी अन्तरके पुरुषको ( – जीवको) बाँधते हैं, क्योंकि बन्धभावकी अपेक्षासे उनमें कोई अन्तर नहीं है ।।१४६।।
गाथार्थ : — [तस्मात् तु ] इसलिये [कुशीलाभ्यां ] इन दोनों कुशीलोंके साथ [रागं ] राग [मा कुरुत ] मत क रो [वा ] अथवा [संसर्गम् च ] संसर्ग भी [मा ] मत क रो, [हि ] क्योंकि [कुशीलसंसर्गरागेण ] कु शीलके साथ संसर्ग और राग क रनेसे [स्वाधीनः विनाशः ] स्वाधीनताका नाश होता है (अथवा तो अपने द्वारा ही अपना घात होता है) ।
टीका : — जैसे कुशील (बुरी) ऐसी मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनीके साथ राग और संसर्ग (हाथीको) बन्ध (बन्धन) के कारण होते हैं, उसीप्रकार कुशील ऐसे शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्ग बन्धके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्गका निषेध किया गया है ।।१४७।।
अब, भगवान कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं ही दृष्टान्तपूर्वक यह समर्थन करते हैं कि दोनों कर्म निषेध्य हैं : —