यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च । बुरी जानकर उनके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता ।
भावार्थ : — हाथीको पकड़नेके लिये हथिनी रखी जाती है; हाथी कामान्ध होता हुआ उस हथिनीरूप कुट्टनीके साथ राग तथा संसर्ग करता है, इसलिये वह पकड़ा जाता है और पराधीन होकर दुःख भोगता है, जो हाथी चतुर होता है वह उस हथिनीके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता; इसीप्रकार अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिको अच्छा समझकर उसके साथ राग तथा संसर्ग करते हैं, इसलिये वे बन्धमें पड़कर पराधीन बनकर संसारके दुःख भोगते हैं, और जो ज्ञानी होता है वह उसके साथ कभी भी राग तथा संसर्ग नहीं करता ।।१४८-१४९।।
गाथार्थ : — [रक्तः जीवः ] रागी जीव [क र्म ] क र्म [बध्नाति ] बाँधता है और [विरागसम्प्राप्तः ] वैराग्यको प्राप्त जीव [मुच्यते ] क र्मसे छूटता है — [एषः ] यह [जिनोपदेशः ] जिनेन्द्रभगवानका उपदेश है; [तस्मात् ] इसलिये (हे भव्य जीव !) तू [क र्मसु ] क र्मोंमें [मा रज्यस्व ] प्रीति – राग मत क र ।
टीका : — ‘‘रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बाँधता है, और विरक्त अर्थात् विरागी ही कर्मसे छूटता है’’ ऐसा जो यह आगमवचन है सो, सामान्यतया रागीपनकी निमित्तताके कारण शुभाशुभ दोनों कर्मोंको अविशेषतया बन्धके कारणरूप सिद्ध करता है और इसलिये दोनों कर्मोंका