(स्वागता) कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ।।१०३।।
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः ।
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ।।१०४।।
श्लोकार्थ : — [यद् ] क्योंकि [सर्वविदः ] सर्वज्ञदेव [सर्वम् अपि क र्म ] समस्त (शुभाशुभ) क र्मको [अविशेषात् ] अविशेषतया [बन्धसाधनम् ] बंधका साधन (कारण) [उशन्ति ] क हते हैं, [तेन ] इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने) [सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं ] समस्त क र्मका निषेध किया है और [ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं ] ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है ।१०३।
जब कि समस्त कर्मोंका निषेध कर दिया गया है तब फि र मुनियोंको किसकी शरण रही सो अब कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् क र्मणि कि ल निषिद्धे ] शुभ आचरणरूप क र्म और अशुभ आचरणरूप क र्म — ऐसे समस्त क र्मका निषेध क र देने पर और [नैष्क र्म्ये प्रवृत्ते ] इसप्रकार निष्क र्म (निवृत्ति) अवस्था प्रवर्तमान होने पर [मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति ] मुनिजन क हीं अशरण नहीं हैं; [तदा ] (क्योंकि) जब निष्क र्म अवस्था प्रवर्तमान होती है तब [ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि ] ज्ञानमें आचरण क रता हुआ — रमण क रता हुआ — परिणमन करता हुआ ज्ञान ही [एषां ] उन मुनियोंको [शरणं ] शरण है; [एते ] वे [तत्र निरताः ] उस ज्ञानमें लीन होते हुए [परमम् अमृतं ] परम अमृतका [स्वयं ] स्वयं [विन्दन्ति ] अनुभव करते हैं — स्वाद लेते हैं ।
भावार्थ : — किसीको यह शंका हो सकती है कि — जब सुकृत और दुष्कृत — दोनोंका निषेध कर दिया गया है तब फि र मुनियोंको कुछ भी करना शेष नहीं रहता, इसलिये वे किसके