Samaysar (Hindi). Gatha: 154 Kalash: 105.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
पुण्य-पाप अधिकार
२४७
(शिखरिणी)
यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं
शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति
अतोऽन्यद्बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत्
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम्
।।१०५।।
अथ पुनरपि पुण्यकर्मपक्षपातिनः प्रतिबोधनायोपक्षिपति
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति
संसारगमणहेदुं वि मोक्खहेदुं अजाणंता ।।१५४।।
परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छन्ति
संसारगमनहेतुमपि मोक्षहेतुमजानन्तः ।।१५४।।

भावार्थ :ज्ञानरूप परिणमन ही मोक्षका कारण है और अज्ञानरूप परिणमन ही बन्धका कारण है; व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ भावरूप शुभकर्म कहीं मोक्षके कारण नहीं हैं, ज्ञानरूप परिणमित ज्ञानीके वे शुभ कर्म न होने पर भी वह मोक्षको प्राप्त करता है; तथा अज्ञानरूप परिणमित अज्ञानीके वे शुभ कर्म होने पर भी वह बन्धको प्राप्त करता है ।।१५३।।

अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :

श्लोकार्थ :[यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति ] जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूपसे और अचलरूपसे ज्ञानस्वरूप होता हुआपरिणमता हुआ भासित होता है [अयं शिवस्य हेतुः ] वही मोक्षका हेतु है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि शिवः इति ] वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है; [अतः अन्यत् ] उसके अतिरिक्त जो अन्य कुछ है [बन्धस्य ] वह बन्धका हेतु है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि बन्धः इति ] वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है [ततः ] इसलिये [ज्ञानात्मत्वं भवनम् ] ज्ञानस्वरूप होनेका (ज्ञानस्वरूप परिणमित होनेका) अर्थात् [अनुभूतिः हि ] अनुभूति क रनेका ही [विहितम् ] आगममें विधान है ।१०५।

अब फि र भी, पुण्यकर्मके पक्षपातीको समझानेके लिये उसका दोष बतलाते हैं :
परमार्थबाहिर जीवगण, जानें न हेतू मोक्षका
अज्ञानसे वे पुण्य इच्छें, हेतु जो संसारका ।।१५४।।
गाथार्थ :[ये ] जो [परमार्थबाह्या ] परमार्थसे बाह्य हैं [ते ] वे [मोक्षहेतुम् ] मोक्षके