शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति ।
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ।।१०५।।
भावार्थ : — ज्ञानरूप परिणमन ही मोक्षका कारण है और अज्ञानरूप परिणमन ही बन्धका कारण है; व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ भावरूप शुभकर्म कहीं मोक्षके कारण नहीं हैं, ज्ञानरूप परिणमित ज्ञानीके वे शुभ कर्म न होने पर भी वह मोक्षको प्राप्त करता है; तथा अज्ञानरूप परिणमित अज्ञानीके वे शुभ कर्म होने पर भी वह बन्धको प्राप्त करता है ।।१५३।।
श्लोकार्थ : — [यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति ] जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूपसे और अचलरूपसे ज्ञानस्वरूप होता हुआ — परिणमता हुआ भासित होता है [अयं शिवस्य हेतुः ] वही मोक्षका हेतु है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि शिवः इति ] वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है; [अतः अन्यत् ] उसके अतिरिक्त जो अन्य कुछ है [बन्धस्य ] वह बन्धका हेतु है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि बन्धः इति ] वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है । [ततः ] इसलिये [ज्ञानात्मत्वं भवनम् ] ज्ञानस्वरूप होनेका ( – ज्ञानस्वरूप परिणमित होनेका) अर्थात् [अनुभूतिः हि ] अनुभूति क रनेका ही [विहितम् ] आगममें विधान है ।१०५।