इह खलु केचिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसम्भावितात्मलाभं मोक्षमभिलषन्तोऽपि, तद्धेतुभूतं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्रमैकाग्य्रालक्षणं समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि, दुरन्तकर्मचक्रोत्तरणक्लीबतया परमार्थभूतज्ञानभवनमात्रं सामायिकमात्मस्वभाव- मलभमानाः, प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्थूलतमविशुद्धपरिणामकर्माणः, कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसन्तुष्टचेतसः, स्थूललक्ष्यतया सकलं कर्मकाण्डमनुन्मूलयन्तः, स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बन्धहेतुमध्यास्य च, व्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्म बन्धहेतुमप्य- जानन्तो, मोक्षहेतुमभ्युपगच्छन्ति
हेतुको [अजानन्तः ] न जानते हुए — [संसारगमनहेतुम् अपि ] संसारगमनका हेतु होने पर भी — [अज्ञानेन ] अज्ञानसे [पुण्यम् ] पुण्यको (मोक्षका हेतु समझकर) [इच्छन्ति ] चाहते हैं ।
टीका : — समस्त कर्मके पक्षका नाश करनेसे उत्पन्न होनेवाला जो आत्मलाभ (निज स्वरूपकी प्राप्ति) उस आत्मलाभस्वरूप मोक्षको इस जगतमें कितने ही जीव चाहते हुए भी, मोक्षके कारणभूत सामायिककी — जो (सामायिक) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाले परमार्थभूत ज्ञानके ❃भवनमात्र है, एकाग्रतालक्षणयुक्त है और समयसारस्वरूप है उसकी — प्रतिज्ञा लेकर भी, दुरन्त कर्मचक्रको पार करनेकी नपुंसकताके (-असमर्थताके) कारण परमार्थभूत ज्ञानके भवनमात्र जो सामायिक उस सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावको न प्राप्त होते हुए, जिनके अत्यन्त स्थूल संक्लेशपरिणामरूप कर्म निवृत्त हुए हैं और अत्यन्त स्थूल विशुद्धपरिणामरूप कर्म प्रवर्त रहे हैं ऐसे वे, कर्मके अनुभवके गुरुत्व-लघुत्वकी प्राप्तिमात्रसे ही सन्तुष्ट चित्त होते हुए भी (स्वयं) स्थूल लक्ष्यवाले होकर (संक्लेशपरिणामको छोड़ते हुए भी) समस्त कर्मकाण्डको मूलसे नहीं उखाड़ते । इसप्रकार वे, स्वयं अपने अज्ञानसे केवल अशुभ कर्मको ही बन्धका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्म भी बन्धके कारण होने पर भी उन्हें बन्धके कारण न जानते हुए, मोक्षके कारणरूपमें अंगीकार करते हैं — मोक्षके कारणरूपमें उनका आश्रय करते हैं ।
भावार्थ : — कितने ही अज्ञानीजन दीक्षा लेते समय सामायिककी प्रतिज्ञा लेते हैं, परन्तु सूक्ष्म ऐसे आत्मस्वभावकी श्रद्धा, लक्ष तथा अनुभव न कर सकनेसे, स्थूल लक्ष्यवाले वे जीव स्थूल संक्लेशपरिणामोंको छोड़कर ऐसे ही स्थूल विशुद्धपरिणामोंमें (शुभ परिणामोंमें) राचते हैं । (संक्लेशपरिणाम तथा विशुद्धपरिणाम दोनों अत्यन्त स्थूल हैं; आत्मस्वभाव ही सूक्ष्म है ।) इसप्रकार वे — यद्यपि वास्तविकतया सर्वकर्मरहित आत्मस्वभावका अनुभवन ही मोक्षका कारण है तथापि — कर्मानुभवके अल्पबहुत्वको ही बन्ध-मोक्षका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील, तप ❃भवन = होना; परिणमन ।