(शार्दूलविक्रीडित)
संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना
संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा ।
सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्-
नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ।।१०९।।
(शार्दूलविक्रीडित)
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा
कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः ।
किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्-
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ।।११०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पुण्य-पाप अधिकार
२५७
33
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [मोक्षार्थिना इदं समस्तम् अपि तत् क र्म एव संन्यस्तव्यम् ] मोक्षार्थीको यह
समस्त ही क र्ममात्र त्याग करने योग्य है । [संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य वा कि ल का क था ]
जहाँ समस्त क र्मका त्याग किया जाता है फि र वहाँ पुण्य या पापकी क्या बात है ? (क र्ममात्र
त्याज्य है तब फि र पुण्य अच्छा है और पाप बुरा — ऐसी बातको अवकाश ही कहाँ हैं ?
क र्मसामान्यमें दोनों आ गये हैं ।) [सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन् ] समस्त
क र्मका त्याग होने पर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होनेसे — परिणमन करनेसे मोक्षका कारणभूत
होता हुआ, [नैष्क र्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसं ] निष्क र्म अवस्थाके साथ जिसका उद्धत ( – उत्कट) रस
प्रतिबद्ध है ऐसा [ज्ञानं ] ज्ञान [स्वयं ] अपने आप [धावति ] दौड़ा चला आता है ।
भावार्थ : — कर्मको दूर करके, अपने सम्यक्त्वादिस्वभावरूप परिणमन करनेसे मोक्षका
कारणरूप होनेवाला ज्ञान अपने आप प्रगट होता है, तब फि र उसे कौन रोक सकता है ? १०९।
अब आशंका उत्पन्न होती है कि — जब तक अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके कर्मका उदय
रहता है तब तक ज्ञान मोक्षका कारण कैसे हो सकता है ? और कर्म तथा ज्ञान दोनों ( – कर्मके
निमित्तसे होनेवाली शुभाशुभ परिणति तथा ज्ञानपरिणति दोनों – ) एक ही साथ कैसे रह सकते हैं ।
इसके समाधानार्थ काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यावत् ] जब तक [ज्ञानस्य क र्मविरतिः ] ज्ञानकी क र्मविरति [सा
सम्यक् पाक म् न उपैति ] भलिभाँति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती [तावत् ] तब तक
[क र्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः ] क र्म और ज्ञानका एकत्रितपना शास्त्रमें क हा