मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन ।
ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ।।११२।।
कितने ही लोग परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जानते नहीं और व्यवहार दर्शन- चरित्ररूप क्रियाकांडके आडम्बरको मोक्षका कारण जानकर उसमें तत्पर रहते हैं — उसका पक्षपात करते हैं । ऐसे कर्मनयके पक्षपाती लोग — जो कि ज्ञानको तो नहीं जानते और कर्मनयमें ही खेदखिन्न हैं वे — संसारमें डूबते हैं ।
और कितने ही लोग आत्मस्वरूपको यथार्थ नहीं जानते तथा सर्वथा एकान्तवादी मिथ्यादृष्टियोंके उपदेशसे अथवा अपने आप ही अन्तरंगमें ज्ञानका स्वरूप मिथ्या प्रकारसे कल्पित करके उसमें पक्षपात करते हैं । वे अपनी परिणतिमें किंचित्मात्र भी परिवर्तन हुए बिना अपनेको सर्वथा अबन्ध मानते हैं और व्यवहार दर्शनचारित्रके क्रियाकाण्डको निरर्थक जानकर छोड़ देते हैं । ऐसे ज्ञाननयके पक्षपाती लोग जो कि स्वरूपका कोई पुरुषार्थ नहीं करते और शुभ परिणामोंको छोड़कर स्वच्छंदी होकर विषय-कषायमें वर्तते हैं वे भी संसारसमुद्रमें डूबते हैं ।
मोक्षमार्गी जीव ज्ञानरूप परिणमित होते हुए शुभाशुभ कर्मको हेय जानते हैं और शुद्ध परिणतिको ही उपादेय जानते हैं । वे मात्र अशुभ कर्मको ही नहीं, किन्तु शुभ कर्मको भी छोड़कर, स्वरूपमें स्थिर होनेके लिये निरन्तर उद्यमी रहते हैं — वे सम्पूर्ण स्वरूपस्थिरता होने तक उसका पुरुषार्थ करते ही रहते हैं । जब तक, पुरुषार्थकी अपूर्णताके कारण, शुभाशुभ परिणामोंसे छूटकर स्वरूपमें सम्पूर्णतया स्थिर नहीं हुआ जा सकता तब तक – यद्यपि स्वरूपस्थिरताका आन्तरिक-आलम्बन (अन्तःसाधन) तो शुद्ध परिणति स्वयं ही है तथापि — आन्तरिकआलम्बन लेनेवालेको जो बाह्य आलम्बनरूप कहे जाते हैं ऐसे (शुद्ध स्वरूपके विचार आदि) शुभ परिणामोंमें वे जीव हेयबुद्धिसे प्रवर्तते हैं, किन्तु शुभ कर्मोंको निरर्थक मानकर तथा छोड़कर स्वच्छन्दतया अशुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होनेकी बुद्धि उन्हें कभी नहीं होती । ऐसे एकान्त अभिप्राय रहित जीव कर्मका नाश करके, संसारसे निवृत्त होते हैं ।१११।
श्लोकार्थ : — [पीतमोहं ] मोहरूपी मदिराके पीनेसे [भ्रम-रस-भरात् भेदोन्मादं नाटयत् ] भ्रमरसके भारसे (अतिशयपनेसे) शुभाशुभ क र्मके भेदरूपी उन्मादको जो नचाता है [तत् सक लम् अपि क र्म ] ऐसे समस्त क र्मको [बलेन ] अपने बल द्वारा [मूलोन्मूलं कृत्वा ] समूल उखाड़कर