इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम् ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पुण्यपापप्ररूपकः तृतीयोऽङ्कः ।।
२६०समयसार
[ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे ] ज्ञानज्योति अत्यन्त सामर्थ्य सहित प्रगट हुई । वह ज्ञानज्योति ऐसी
है कि [क वलिततमः ] जिसने अज्ञानरूपी अंधकारका ग्रास क र लिया है अर्थात् जिसने अज्ञानरूप
अंधकारका नाश क र दिया है, [हेला-उन्मिलत् ] जो लीलामात्रसे ( – सहज पुरुषार्थसे) विक सित
होती जाती है और [परमक लया सार्धम् आरब्धकेलि ] जिसने परम क ला अर्थात् केवलज्ञानके साथ
क्रीड़ा प्रारम्भ की है (जब तक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तब तक ज्ञानज्योति के वलज्ञानके साथ
शुद्धनयके बलसे परोक्ष क्रीड़ा क रती है, के वलज्ञान होने पर साक्षात् होती है ।)
भावार्थ : — आपको (ज्ञानज्योतिको) प्रतिबन्धक कर्म जो कि शुभाशुभ भेदरूप होकर
नाचता था और ज्ञानको भुला देता था उसे अपनी शक्तिसे उखाड़कर ज्ञानज्योति सम्पूर्ण सामर्थ्य
सहित प्रकाशित हुई । वह ज्ञानज्योति अथवा ज्ञानकला केवलज्ञानरूप परमकलाका अंश है तथा
केवलज्ञानके सम्पूर्ण स्वरूपको वह जानती है और उस ओर प्रगति करती है, इसलिये यह कहा
है कि ‘ज्ञानज्योतिने केवलज्ञानके साथ क्रीड़ा प्रारंभ की है’ । ज्ञानकला सहजरूपसे विकासको
प्राप्त होती जाती है और अन्तमें परमकला अर्थात् केवलज्ञान हो जाती है ।११२।
टीका : — पुण्य-पापरूपसे दो पात्रोंके रूपमें नाचनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर
(रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया ।
भावार्थ : — यद्यपि कर्म सामान्यतया एक ही है तथापि उसने पुण्य-पापरूप दो पात्रोंका
स्वांग धारण करके रंगभूमिमें प्रवेश किया था । जब उसे ज्ञानने यथार्थतया एक जान लिया तब
वह एक पात्ररूप होकर रंगभूमिसे बाहर निकल गया, और नृत्य करना बन्द कर दिया ।
आश्रय, कारण, रूप, सवादसुं भेद विचारी गिनै दोऊ न्यारे,
पुण्य रु पाप शुभाशुभभावनि बन्ध भये सुखदुःखकरा रे ।
ज्ञान भये दोउ एक लखै बुध आश्रय आदि समान विचारे,
बन्धके कारण हैं दोऊ रूप, इन्हें तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे ।।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें पुण्य-पापका प्ररूपक
तीसरा अङ्क समाप्त हुआ ।
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