यतो हि ज्ञानिनो ज्ञानमयैर्भावैरज्ञानमया भावाः परस्परविरोधिनोऽवश्यमेव निरुध्यन्ते;
ततोऽज्ञानमयानां भावानाम् रागद्वेषमोहानां आस्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव
आस्रवनिरोधः । अतो ज्ञानी नास्रवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बघ्नाति, नित्यमेवाकर्तृत्वात् तानि
नवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि ज्ञानस्वभावत्वात् केवलमेव जानाति ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
ऐसा बन्ध [नास्ति ] नहीं है, [आस्रवनिरोधः ] (क्योंकि) आस्रवका (भावास्रवका) निरोध है;
[तानि ] नवीन क र्मोंको [अबध्नन् ] नहीं बाँधता [सः ] वह, [सन्ति ] सत्तामें रहे हुए
[पूर्वनिबद्धानि ] पूर्वबद्ध कर्मोंको [जानाति ] जानता ही है ।
टीका : — वास्तवमें ज्ञानीके ज्ञानमय भावोंसे अज्ञानमय भाव अवश्य ही निरुद्ध –
अभावरूप होते हैं, क्योंकि परस्पर विरोधी भाव एकसाथ नहीं रह सकते; इसलिये अज्ञानमय
भावरूप राग-द्वेष-मोह जो कि आस्रवभूत (आस्रवस्वरूप) हैं उनका निरोध होनेसे, ज्ञानीके
आस्रवका निरोध होता ही है । इसलिये ज्ञानी, आस्रव जिनका निमित्त है ऐसे (ज्ञानावरणादि)
पुद्गलकर्मोंको नहीं बाँधता, — सदा अकर्तृत्व होनेसे नवीन कर्मोंको न बाँधता हुआ सत्तामें
रहे हुए पूर्वबद्ध कर्मोंको, स्वयं ज्ञानस्वभाववान् होनेसे, मात्र जानता ही है । (ज्ञानीका ज्ञान
ही स्वभाव है, कर्तृत्व नहीं; यदि कर्तृत्व हो तो कर्मको बाँधे, ज्ञातृत्व होनेसे कर्मबन्ध नहीं
करता ।)
भावार्थ : — ज्ञानीके अज्ञानमय भाव नहीं होते, और अज्ञानमय भाव न होनेसे
(अज्ञानमय) रागद्वेषमोह अर्थात् आस्रव नहीं होते और आस्रव न होनेसे नवीन बन्ध नहीं
होता । इसप्रकार ज्ञानी सदा ही अकर्ता होनेसे नवीन कर्म नहीं बाँधता और जो पूर्वबद्ध कर्म
सत्तामें विद्यमान हैं उनका मात्र ज्ञाता ही रहता है ।
अविरतसम्यग्दृष्टिके भी अज्ञानमय रागद्वेषमोह नहीं होता । जो मिथ्यात्व सहित रागादि
होता है वही अज्ञानके पक्षमें माना जाता है, सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञानके पक्षमें नहीं
है । सम्यग्दृष्टिके सदा ज्ञानमय परिणमन ही होता है । उसको चारित्रमोहके उदयकी बलवत्तासे
जो रागादि होते हैं उसका स्वामित्व उसके नहीं है; वह रागादिको रोग समान जानकर प्रवर्तता
है और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें काटता जाता है । इसलिये ज्ञानीके जो रागादि होते हैं
वह विद्यमान होने पर भी अविद्यमान जैसे ही हैं; वह आगामी सामान्य संसारका बन्ध नहीं
करता, मात्र अल्प स्थिति-अनुभागवाला बन्ध करता है । ऐसे अल्प बन्धको यहाँ नहीं
गिना है ।।१६६।।
इसप्रकार ज्ञानीके आस्रव न होनेसे बन्ध नहीं होता ।