मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मास्रवणनिमित्तत्वात्,
किलास्रवाः । तेषां तु तदास्रवणनिमित्तम्त्वनिमित्तम् अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्वेषमोहाः ।
तत आस्रवणनिमित्तत्वनिमित्तत्वात् रागद्वेषमोहा एवास्रवाः । ते चाज्ञानिन एव भवन्तीति
अर्थादेवापद्यते ।
अथ ज्ञानिनस्तदभावं दर्शयति —
णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो ।
संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो ।।१६६।।
नास्ति त्वास्रवबन्धः सम्यग्दृष्टेरास्रवनिरोधः ।
सन्ति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबध्नन् ।।१६६।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
आस्रव अधिकार
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मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग — यह पुद्गलपरिणाम, ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मके
आस्रवणके निमित्त होनेसे, वास्तवमें आस्रव हैं; और उनके (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके) कर्म-
आस्रवणके निमित्तत्वके निमित्त रागद्वेषमोह हैं — जो कि अज्ञानमय आत्मपरिणाम हैं । इसलिये
(मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके) आस्रवणके निमित्तत्वके निमित्तभूत होनेसे राग-द्वेष-मोह ही
आस्रव हैं । और वे ( – रागद्वेषमोह) तो अज्ञानीके ही होते हैं यह अर्थमेंसे ही स्पष्ट ज्ञात होता है ।
(यद्यपि गाथामें यह स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कहा है तथापि गाथाके ही अर्थमेंसे यह आशय निकलता है ।)
भावार्थ : — ज्ञानावरणादि कर्मोंके आस्रवणका ( – आगमनका) कारण (निमित्त) तो
मिथ्यात्वादिकर्मके उदयरूप पुद्गल-परिणाम हैं, इसलिये वे वास्तवमें आस्रव हैं । और उनके
कर्मास्रवके निमित्तभूत होनेका निमित्त जीवके रागद्वेषमोहरूप (अज्ञानमय) परिणाम हैं, इसलिये
रागद्वेषमोह ही आस्रव हैं । उन रागद्वेषमोहको चिद्विकार भी कहा जाता है । वे रागद्वेषमोह जीवकी
अज्ञान-अवस्थामें ही होते हैं । मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है । इसलिये मिथ्यादृष्टिके
अर्थात् अज्ञानीके ही रागद्वेषमोहरूप आस्रव होते हैं ।।१६४-१६५।।
अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानीके आस्रवोंका (भावास्रवोंका) अभाव है : —
सद्दृष्टिको आस्रव नहीं, नहिं बन्ध, आस्रवरोध है ।
नहिं बाँधता, जाने हि पूर्वनिबद्ध जो सत्ताविषैं ।।१६६।।
गाथार्थ : — [सम्यग्दृष्टेः तु ] सम्यग्दृष्टिके [आस्रवबन्धः ] आस्रव जिसका निमित्त है