किलास्रवाः । तेषां तु तदास्रवणनिमित्तम्त्वनिमित्तम् अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्वेषमोहाः ।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग — यह पुद्गलपरिणाम, ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मके आस्रवणके निमित्त होनेसे, वास्तवमें आस्रव हैं; और उनके (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके) कर्म- आस्रवणके निमित्तत्वके निमित्त रागद्वेषमोह हैं — जो कि अज्ञानमय आत्मपरिणाम हैं । इसलिये (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके) आस्रवणके निमित्तत्वके निमित्तभूत होनेसे राग-द्वेष-मोह ही आस्रव हैं । और वे ( – रागद्वेषमोह) तो अज्ञानीके ही होते हैं यह अर्थमेंसे ही स्पष्ट ज्ञात होता है । (यद्यपि गाथामें यह स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कहा है तथापि गाथाके ही अर्थमेंसे यह आशय निकलता है ।)
भावार्थ : — ज्ञानावरणादि कर्मोंके आस्रवणका ( – आगमनका) कारण (निमित्त) तो मिथ्यात्वादिकर्मके उदयरूप पुद्गल-परिणाम हैं, इसलिये वे वास्तवमें आस्रव हैं । और उनके कर्मास्रवके निमित्तभूत होनेका निमित्त जीवके रागद्वेषमोहरूप (अज्ञानमय) परिणाम हैं, इसलिये रागद्वेषमोह ही आस्रव हैं । उन रागद्वेषमोहको चिद्विकार भी कहा जाता है । वे रागद्वेषमोह जीवकी अज्ञान-अवस्थामें ही होते हैं । मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है । इसलिये मिथ्यादृष्टिके अर्थात् अज्ञानीके ही रागद्वेषमोहरूप आस्रव होते हैं ।।१६४-१६५।।