ये खलु पूर्वमज्ञानेन बद्धा मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा द्रव्यास्रवभूताः प्रत्ययाः, ते ज्ञानिनो द्रव्यान्तरभूता अचेतनपुद्गलपरिणामत्वात् पृथ्वीपिण्डसमानाः । ते तु सर्वेऽपि- स्वभावत एव कार्माणशरीरेणैव सम्बद्धाः, न तु जीवेन । अतः स्वभावसिद्ध एव द्रव्यास्रवाभावो ज्ञानिनः ।
द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः ।
निरास्रवो ज्ञायक एक एव ।।११५।।
[क र्मशरीरेण ] (मात्र) कार्मण शरीरके साथ [बद्धाः ] बँधे हुए हैं ।
टीका : — जो पहले अज्ञानसे बँधे हुए मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप द्रव्यास्रवभूत प्रत्यय हैं, वे अन्यद्रव्यस्वरूप प्रत्यय अचेतन पुद्गलपरिणामवाले हैं, इसलिये ज्ञानीके लिये मिट्टीके ढेलेके समान हैं ( – जैसे मिट्टी आदि पुद्गलस्कन्ध हैं वैसे ही यह प्रत्यय हैं); वे तो समस्त ही, स्वभावसे ही मात्र कार्मण शरीरके साथ बँधे हुए हैं — सम्बन्धयुक्त हैं, जीवके साथ नहीं; इसलिये ज्ञानीके स्वभावसे ही द्रव्यास्रवका अभाव सिद्ध है ।
भावार्थ : — ज्ञानीके जो पहले अज्ञानदशामें बँधे हुए मिथ्यात्वादि द्रव्यास्रवभूत प्रत्यय हैं वे तो मिट्टीके ढेलेकी भाँति पुद्गलमय हैं, इसलिये वे स्वभावसे ही अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप जीवसे भिन्न हैं । उनका बन्ध अथवा सम्बन्ध पुद्गलमय कार्मणशरीरके साथ ही है, चिन्मय जीवके साथ नहीं । इसलिये ज्ञानीके द्रव्यास्रवका अभाव तो स्वभावसे ही है । (और ज्ञानीके भावास्रवका अभाव होनेसे, द्रव्यास्रव नवीन कर्मोंके आस्रवणके कारण नहीं होते, इसलिये इस दृष्टिसे भी ज्ञानीके द्रव्यास्रवका अभाव है ।)।।१६९।।
श्लोकार्थ : — [भावास्रव-अभावम् प्रपन्नः ] भावास्रवोंके अभावको प्राप्त और [द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः ] द्रव्यास्रवोंसे तो स्वभावसे ही भिन्न [अयं ज्ञानी ] यह ज्ञानी — [सदा ज्ञानमय-एक -भावः ] जो कि सदा एक ज्ञानमय भाववाला है — [निरास्रवः ] निरास्रव ही है, [एक : ज्ञायक : एव ] मात्र एक ज्ञायक ही है ।