कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत् —
चउविह अणेयभेयं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं ।
समए समए जम्हा तेण अबंधो त्ति णाणी दु ।।१७०।।
चतुर्विधा अनेकभेदं बध्नन्ति ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम् ।
समये समये यस्मात् तेनाबन्ध इति ज्ञानी तु ।।१७०।।
ज्ञानी हि तावदास्रवभावभावनाभिप्रायाभावान्निरास्रव एव । यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः
प्रतिसमयमनेक प्रकारं पुद्गलकर्म बध्नन्ति, तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतुः ।
कथं ज्ञानगुणपरिणामो बन्धहेतुरिति चेत् —
कहानजैनशास्त्रमाला ]
आस्रव अधिकार
२६९
भावार्थ : — ज्ञानीके रागद्वेषमोहस्वरूप भावास्रवका अभाव हुआ है और वह द्रव्यास्रवसे
तो सदा ही स्वयमेव भिन्न ही है, क्योंकि द्रव्यास्रव पुद्गलपरिणामस्वरूप है और ज्ञानी
चैतन्यस्वरूप है । इसप्रकार ज्ञानीके भावास्रव तथा द्रव्यास्रवका अभाव होनेसे वह निरास्रव ही
है ।११५।
अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानी निरास्रव कैसे हैैं? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते
हैं : —
चउविधास्रव समय समय जु, ज्ञानदर्शन गुणहिसे ।
बहुभेद बाँधे कर्म, इससे ज्ञानि बन्धक नाहिं है ।।१७०।।
गाथार्थ : — [यस्मात् ] क्योंकि [चतुर्विधाः ] चार प्रकारके द्रव्यास्रव [ज्ञानदर्शन-
गुणाभ्याम् ] ज्ञानदर्शनगुणोंके द्वारा [समये समये ] समय समय पर [अनेक भेदं ] अनेक प्रकारका
क र्म [बध्नन्ति ] बाँधते हैं, [तेन ] इसलिये [ज्ञानी तु ] ज्ञानी तो [अबन्धः इति ] अबन्ध है ।
टीका : — पहले, ज्ञानी तो आस्रवभावकी भावनाके अभिप्रायके अभावके कारण निरास्रव
ही है; परन्तु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति समय अनेक प्रकारका पुद्गलकर्म बाँधते हैं, वहाँ
ज्ञानगुणका परिणमन ही कारण है ।।१७०।।
अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानगुणका परिणमन बन्धका कारण कैसे है ? उसके उत्तरकी
गाथा कहते हैं : —