Samaysar (Hindi). Gatha: 171.

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जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि
अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।।१७१।।
यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते
अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बन्धको भणितः ।।१७१।।
ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः तावत् तस्यान्तर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्य-
तयास्ति परिणामः स तु, यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यम्भाविरागसद्भावात्, बन्धहेतुरेव
स्यात्
एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्
२७०
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
जो ज्ञानगुणकी जघनतामें, वर्तता गुण ज्ञानका
फि र फि र प्रणमता अन्यरूप जु, उसहिसे बन्धक कहा ।।१७१।।
गाथार्थ :[यस्मात् तु ] क्योंकि [ज्ञानगुणः ] ज्ञानगुण, [जघन्यात् ज्ञानगुणात् ] जघन्य
ज्ञानगुणके कारण [पुनरपि ] फि रसे भी [अन्यत्वं ] अन्यरूपसे [परिणमते ] परिणमन करता है,
[तेन तु ] इसलिये [सः ] वह (ज्ञानगुण) [बन्धक : ] क र्मोंका बंधक [भणितः ] क हा गया है
टीका :जब तक ज्ञानगुणका जघन्य भाव है (क्षायोपशमिक भाव है) तब तक
वह (ज्ञानगुण) अन्तर्मुहूर्तमें विपरिणामको प्राप्त होता है, इसलिये पुनः पुनः उसका अन्यरूप
परिणमन होता है
वह (ज्ञानगुणका जघन्य भावसे परिणमन), यथाख्यातचारित्र-अवस्थाके नीचे
अवश्यम्भावी रागका सद्भाव होनेसे, बन्धका कारण ही है
भावार्थ :क्षायोपशमिकज्ञान एक ज्ञेय पर अन्तर्मुहूर्त ही ठहरता है, फि र वह अवश्य ही
अन्य ज्ञेयको अवलम्बता है; स्वरूपमें भी वह अन्तर्मुहूर्त ही टिक सकता है, फि र वह विपरिणामको
प्राप्त होता है
इसलिये ऐसा अनुमान भी हो सकता है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा सविकल्प दशामें
हो या निर्विकल्प अनुभवदशामें होउसे यथाख्यातचारित्र-अवस्था होनेके पूर्व अवश्य ही
रागभावका सद्भाव होता है; और राग होनेसे बन्ध भी होता है इसलिये ज्ञानगुणके जघन्य भावको
बन्धका हेतु कहा गया है ।।१७१।।
अब पुनः प्रश्न होता है कियदि ऐसा है (अर्थात् ज्ञानगुणका जघन्य भाव बन्धका कारण
है) तो फि र ज्ञानी निरास्रव कैसे है ? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं :