वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् ।
न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।।११६।।
है, जान सकता है और आचरण कर सकता है; इससे यह ज्ञात होता है कि उस ज्ञानीके अभी
अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकका विपाक (चारित्रमोहसम्बन्धी रागद्वेष) विद्यमान है और इससे उसके
बन्ध भी होता है । इसलिये उसे यह उपदेश है कि — जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तब तक
ज्ञानका ही आचरण करना चाहिये । इसी मार्गसे दर्शन-ज्ञान-चारित्रका परिणमन बढ़ता जाता है और
जब तक क्षायोपशमिक ज्ञान है तब तक अबुद्धिपूर्वक (चारित्रमोहका) राग होने पर भी, बुद्धिपूर्वक रागके अभावकी अपेक्षासे ज्ञानीके निरास्रवत्व कहा है और अबुद्धिपूर्वक रागका अभाव होने पर तथा केवलज्ञान प्रगट होने पर सर्वथा निरास्रवत्व कहा है । यह, विवक्षाकी विचित्रता है । अपेक्षासे समझने पर यह सर्व कथन यथार्थ है ।।१७२।।
श्लोकार्थ : — [आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा ] आत्मा जब ज्ञानी होता है तब, [स्वयं ] स्वयं [निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं ] अपने समस्त बुद्धिपूर्वक रागको [अनिशं ] निरन्तर [संन्यस्यन् ] छोड़ता हुआ अर्थात् न क रता हुआ, [अबुद्धिपूर्वम् ] और जो अबुद्धिपूर्वक राग है [तं अपि ] उसे भी [जेतुं ] जीतनेके लिये [वारम्वारम् ] बारम्बार [स्वशक्तिं स्पृशन् ] (ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्तिको स्पर्श करता हुआ और (इसप्रकार) [सक लां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ] समस्त परवृत्तिको – परपरिणतिको – उखाड़ता हुआ [ज्ञानस्य पूर्णः भवन् ] ज्ञानके पूर्णभावरूप होता हुआ, [हि ] वास्तवमें [नित्यनिरास्रवः भवति ] सदा निरास्रव है ।
भावार्थ : — ज्ञानीने समस्त रागको हेय जाना है । वह रागको मिटानेके लिये उद्यम करता है; उसके आस्रवभावकी भावनाका अभिप्राय नहीं है; इसलिये वह सदा निरास्रव ही कहलाता है ।