(अनुष्टुभ्)
सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ ।
कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः ।।११७।।
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स ।
उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण ।।१७३।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
आस्रव अधिकार
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अश्रद्धारूप परवृत्तिको छोड़ दिया है और वह अस्थिरतारूप परवृत्तिको जीतनेके लिये निज
शक्तिको बारम्बार स्पर्श करता है अर्थात् परिणतिको स्वरूपके प्रति बारम्बार उन्मुख किया करता
है । इसप्रकार सकल परवृत्तिको उखाड़ करके केवलज्ञान प्रगट करता है ।
‘बुद्धिपूर्वक’ और ‘अबुद्धिपूर्वक’ का अर्थ इसप्रकार है : — जो रागादिपरिणाम इच्छा
सहित होते हैं सो बुद्धिपूर्वक हैं और जो इच्छा रहित — परनिमित्तकी बलवत्तासे होते हैं सो
अबुद्धिपूर्वक हैं । ज्ञानीके जो रागादिपरिणाम होते हैं वे सभी अबुद्धिपूर्वक ही हैं; सविकल्प दशामें
होनेवाले रागादिपरिणाम ज्ञानीको ज्ञात तो हैं तथापि वे अबुद्धिपूर्वक हैं, क्योंकि वे बिना ही इच्छाके
होते हैं ।
(पण्डित राजमलजीने इस कलशकी टीका करते हुए ‘बुद्धिपूर्वक’ और ‘अबुद्धिपूर्वक’
का अर्थ इसप्रकार किया है : — जो रागादिपरिणाम मनके द्वारा, बाह्य विषयोंका अवलम्बन लेकर
प्रवर्तते हुए जीवको स्वयंको ज्ञात होते हैं तथा दूसरोंको भी अनुमानसे ज्ञात होते हैं वे परिणाम
बुद्धिपूर्वक हैं; और जो रागादिपरिणाम इन्द्रिय-मनके व्यापारके अतिरिक्त मात्र मोहोदयके निमित्तसे
होते हैं तथा जीवको ज्ञात नहीं होते वे अबुद्धिपूर्वक हैं । इन अबुद्धिपूर्वक परिणामोंको प्रत्यक्ष ज्ञानी
जानता है और उनके अविनाभावी चिह्नोंसे वे अनुमानसे भी ज्ञात होते हैं ।) ।११६।
अब शिष्यकी आशंकाका श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — ‘[सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां ] ज्ञानीके समस्त द्रव्यास्रवकी
सन्तति विद्यमान होने पर भी [कुतः ] यह क्यों कहा है कि [ज्ञानी ] ज्ञानी [नित्यम् एव ] सदा
ही [निरास्रवः ] निरास्रव है ?’ — [इति चेत् मतिः ] यदि तेरी यह मति (आशंका) है तो अब
उसका उत्तर कहा जाता है ।११७।
अब, पूर्वोक्त आशंकाके समाधानार्थ गाथा कहते हैं : —
जो सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय, वर्तते सद्दृष्टिके ।
उपयोगके प्रायोग्य बन्धन, कर्मभावोंसे करे ।।१७३।।