(वसन्ततिलका)
अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्न-
मैकाग्य्रमेव कलयन्ति सदैव ये ते ।
रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः
पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम् ।।१२०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
आस्रव अधिकार
२७९
सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहा जाता है वह योग्य ही है । ‘ज्ञानी’ शब्द मुख्यतया तीन
अपेक्षाओंको लेकर प्रयुक्त होता है : — (१) प्रथम तो, जिसे ज्ञान हो वह ज्ञानी कहलाता है;
इसप्रकार सामान्य ज्ञानकी अपेक्षासे सभी जीव ज्ञानी है । (२) यदि सम्यक् ज्ञान और मिथ्या
ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाये तो सम्यग्दृष्टिको सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए उस अपेक्षासे
वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है । (३) सम्पूर्ण ज्ञान और अपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षासे विचार
किया जाये तो केवली भगवान ज्ञानी हैं और छद्मस्थ अज्ञानी हैं, क्योंकि सिद्धान्तमें पाँच भावोंका
कथन करने पर बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा है । इसप्रकार अनेकान्तसे अपेक्षाके द्वारा
विधिनिषेधनिर्बाधरूपसे सिद्ध होता है; सर्वथा एकान्तसे कुछ भी सिद्ध नहीं होता ।।१७७-१७८।।
अब, ज्ञानीको बन्ध नहीं होता यह शुद्धनयका माहात्म्य है, इसलिये शुद्धनयकी महिमा
दर्शक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य ] उद्धत ज्ञान ( – जो कि किसीके
दबाये नहीं दब सक ता ऐसा उन्नत ज्ञान) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्धनयमें रहकर अर्थात्
शुद्धनयका आश्रय लेकर [ये ] जो [सदा एव ] सदा ही [ऐकाग्य्राम् एव ] एकाग्रताका ही
[क लयन्ति ] अभ्यास क रते हैं [ते ] वे, [सततं ] निरन्तर [रागादिमुक्तमनसः भवन्तः ] रागादिसे
रहित चित्तवाले वर्तते हुए, [बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित समयके सारको (अपने शुद्ध
आत्मस्वरूपको) [पश्यन्ति ] देखते हैं — अनुभव करते हैं
।
भावार्थ : — यहाँ शुद्धनयके द्वारा एकाग्रताका अभ्यास करनेको कहा है । ‘मैं केवल
ज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्ध हूँ’ — ऐसा जो आत्मद्रव्यका परिणमन वह शुद्धनय । ऐसे परिणमनके कारण
वृत्ति ज्ञानकी ओर उन्मुख होती रहे और स्थिरता बढ़ती जाये सो एकाग्रताका अभ्यास ।
शुद्धनय श्रुतज्ञानका अंश है और श्रुतज्ञान तो परोक्ष है, इसलिये इस अपेक्षासे शुद्धनयके
द्वारा होनेवाला शुद्ध स्वरूपका अनुभव भी परोक्ष है । और वह अनुभव एकदेश शुद्ध है इस
अपेक्षासे उसे व्यवहारसे प्रत्यक्ष भी कहा जाता है । साक्षात् शुद्धनय तो केवलज्ञान होने पर होता
है ।१२०।