(वसन्ततिलका)
प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु
रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः ।
ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध-
द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम् ।।१२१।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
अब यह कहते हैं कि जो शुद्धनयसे च्युत होते हैं वे कर्म बांधते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इह ] जगत्में [ये ] जो [शुद्धनयतः प्रच्युत्य ] शुद्धनयसे च्युत होकर
[पुनः एव तु ] पुनः [रागादियोगम् ] रागादिके सम्बन्धको [उपयान्ति ] प्राप्त होते हैं [ते ]
ऐसे जीव, [विमुक्तबोधाः ] जिन्होंने ज्ञानको छोड़ा है ऐसे होते हुए, [पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः ]
पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवोंके द्वारा [क र्मबन्धम् ] क र्मबंधको [विभ्रति ] धारण क रते हैं ( – क र्मोंको
बाँधते हैं) — [कृत-विचित्र-विक ल्प-जालम् ] जो कि क र्मबन्ध अनेक प्रकारके विकल्प
जालको करता है (अर्थात् जो क र्मबन्ध अनेक प्रकारका है) ।
भावार्थ : — शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् ‘मैं शुद्ध हूँ’ ऐसे परिणमनसे छूटकर
अशुद्धरूप परिणमित होना अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाना । ऐसा होने पर, जीवके मिथ्यात्व
सम्बन्धी रागादिक उत्पन्न होते हैं, जिससे द्रव्यास्रव कर्मबन्धके कारण होते हैं और इसलिये
अनेक प्रकारके कर्म बंधते हैं । इसप्रकार यहाँ शुद्धनयसे च्युत होनेका अर्थ शुद्धताकी
प्रतीतिसे (सम्यक्त्वसे) च्युत होना समझना चाहिए । यहाँ उपयोगकी अपेक्षा गौण है,
शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् शुद्ध उपयोगसे च्युत होना ऐसा अर्थ यहाँ मुख्य नहीं है; क्योंकि
शुद्धोपयोगरूप रहनेका समय अल्प रहता है, इसलिये मात्र अल्प काल शुद्धोपयोगरूप रहकर
और फि र उससे छूटकर ज्ञान अन्य ज्ञेयोंमें उपयुक्त हो तो भी मिथ्यात्वके बिना जो रागका
अंश है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है, इसलिये ज्ञानीके मात्र अल्प बन्ध होता है और अल्प
बन्ध संसारका कारण नहीं है । इसलिये यहाँ उपयोगकी अपेक्षा मुख्य नहीं है ।
अब यदि उपयोगकी अपेक्षा ली जाये तो इसप्रकार अर्थ घटित होता है : — यदि
जीव शुद्धस्वरूपके निर्विकल्प अनुभवसे छूटे, परन्तु सम्यक्त्वसे न छूटे तो उसे चारित्रमोहके
रागसे कुछ बन्ध होता है । यद्यपि वह बन्ध अज्ञानके पक्षमें नहीं है तथापि वह बन्ध तो
है ही । इसलिये उसे मिटानेके लिये सम्यदृष्टि ज्ञानिको शुद्धनयसे न छूटनेका अर्थात्
शुद्धोपयोगमें लीन रहनेका उपदेश है । केवलज्ञान होने पर साक्षात् शुद्धनय होता है ।१२१।