Samaysar (Hindi). Kalash: 124.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
आस्रव अधिकार
२८३
(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां
नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः
स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावा-
नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्
।।१२४।।
ज्ञानमें स्थिरताको बाँधता हुआ (अर्थात् ज्ञानमें परिणतिको स्थिर रखता हुआ) शुद्धनय
[क र्मणाम् सर्वंक षः ] जो कि क र्मोंका समूल नाश क रनेवाला है[कृतिभिः ] पवित्र धमरत्मा
(सम्यग्दृष्टि) पुरुषोंके द्वारा [जातु ] क भी भी [न त्याज्यः ] छोड़ने योग्य नहीं है [तत्रस्थाः ]
शुद्धनयमें स्थित वे पुरुष, [बहिः निर्यत् स्व-मरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य ] बाहार निक लती
हुई अपनी ज्ञानकि रणोंके समूहको (अर्थात् क र्मके निमित्तसे परोन्मुख जानेवाली ज्ञानकी विशेष
व्यक्तियोंको) अल्पकालमें ही समेटकर, [पूर्णं ज्ञान-घन-ओघम् एक म् अचलं शान्तं महः ]
पूर्ण, ज्ञानघनके पुञ्जरूप, एक , अचल, शान्त तेजको
तेजःपुंजको[पश्यन्ति ] देखते हैं अर्थात्
अनुभव करते हैं

भावार्थ :शुद्धनय, ज्ञानके समस्त विशेषोंको गौण करके तथा परनिमित्तसे होनेवाले समस्त भावोंको गौण करके, आत्माको शुद्ध, नित्य, अभेदरूप, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करता है और इसलिये परिणति शुद्धनयके विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामें एकाग्रस्थिरहोती जाती है इसप्रकार शुद्धनयका आश्रय लेनेवाले जीव बाहर निकलती हुई ज्ञानकी विशेष व्यक्तताओंको अल्पकालमें ही समेटकर, शुद्धनयमें (आत्माकी शुद्धताके अनुभवमें) निर्विकल्पतया स्थिर होने पर अपने आत्माको सर्व कर्मोंसे भिन्न, केवल ज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप देखते हैं और शुक्लध्यानमें प्रवृत्ति करके अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्रगट करते हैं शुद्धनयका ऐसा माहात्म्य है इसलिये श्री गुरुओंका यह उपदेश है कि जब तक शुद्धनयके अवलम्बनसे केवलज्ञान उत्पन्न न हो तब तक सम्यग्दृष्टि जीवोंको शुद्धनयका त्याग नहीं करना चाहिये १२३

अब, आस्रवोंका सर्वथा नाश करनेसे जो ज्ञान प्रगट हुआ उस ज्ञानकी महिमाका सूचक काव्य कहते हैं :

श्लोकार्थ :[नित्य-उद्योतं ] जिसका उद्योत (प्रकाश) नित्य है ऐसी [कि म् अपि परमं वस्तु ] किसी परम वस्तुको [अन्तः सम्पश्यतः ] अन्तरंगमें देखनेवाले पुरुषको, [रागादीनां आस्रवाणां ] रागादि आस्रवोंका [झगिति ] शीघ्र ही [सर्वतः अपि ] सर्व प्रकार [विगमात् ] नाश होनेसे, [एतत् ज्ञानम् ] यह ज्ञान [उन्मग्नम् ] प्रगट हुआ[स्फारस्फारैः ] कि जो ज्ञान अत्यन्तात्यन्त (अनन्तानन्त) विस्तारको प्राप्त [स्वरसविसरैः ] निजरसके प्रसारसे [आ-लोक -