Samaysar (Hindi). Kalash: 122-123.

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पुद्गलकर्म बन्धं परिणमयन्ति न चैतदप्रसिद्धं, पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः
परिणामकरणस्य दर्शनात्
(अनुष्टुभ्)
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि
नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि ।।१२२।।
(शार्दूलविक्रीडित)
धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन् न्धृतिं
त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंक षः कर्मणाम्
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहिः
पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः
।।१२३।।
२८२
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
पर हेतुमान भावका (कार्यभावका) अनिवार्यत्व होनेसे, ज्ञानावरणादि भावसे पुद्गलकर्मको
बन्धरूप परिणमित करते हैं और यह अप्रसिद्ध भी नहीं है (अर्थात् इसका दृष्टान्त जगतमें प्रसिद्ध
हैसर्व ज्ञात है); क्योंकि मनुष्यके द्वारा ग्रहण किये गये आहारका जठराग्नि रस, रुधिर, माँस
इत्यादिरूपमें परिणमित करती है यह देखा जाता है
भावार्थ :जब ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत हो तब उसके रागादिभावोंका सद्भाव होता है,
रागादिभावोंके निमित्तसे द्रव्यास्रव अवश्य कर्मबन्धके कारण होते हैं और इसलिये कार्मणवर्गणा
बन्धरूप परिणमित होती है
टीकामें जो यह कहा है कि ‘‘द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मको बन्धरूप
परिणमित कराते हैं ’’, सो निमित्तकी अपेक्षासे कहा है वहाँ यह समझना चाहिए कि
‘‘द्रव्यप्रत्ययोंके निमित्तभूत होने पर कार्मणवर्गणा स्वयं बन्धरूप परिणमित होती है’’ १७९-१८०
अब इस सर्व कथनका तात्पर्यरूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अत्र ] यहाँ [इदम् एव तात्पर्यं ] यही तात्पर्य है कि [शुद्धनयः न हि
हेयः ] शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; [हि ] क्योंकि [तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति ] उसके
अत्यागसे (क र्मका) बन्ध नहीं होता और [तत्-त्यागात् बन्धः एव ] उसके त्यागसे बन्ध ही होता
है
।१२२।
‘शुद्धनय त्याग करने योग्य नहीं है’ इस अर्थको दृढ करनेवाला काव्य पुनः कहते हैं :
श्लोकार्थ :[धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः ] धीर
(चलाचलता रहित) और उदार (सर्व पदार्थोंमें विस्तारयुक्त) जिसकी महिमा है ऐसे अनादिनिधन