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(दोहा)
मोहरागरूप दूरि करि, समिति गुप्ति व्रत पारि ।
संवरमय आतम कियो, नमूँ ताहि, मन धारि ।।
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि ‘‘अब संवर प्रवेश करता है’’ । आस्रवके
रंगभूमिमेंसे बाहर निकल जानेके बाद अब संवर रंगभूमिमें प्रवेश करता है ।
यहाँ पहले टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वाँगको जाननेवाले सम्यग्ज्ञानकी महिमादर्शक
मंगलाचरण करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [आसंसार-विरोधि-संवर-जय-एकान्त-अवलिप्त-आस्रव-न्यक्कारात् ]
अनादि संसारसे लेकर अपने विरोधी संवरको जीतनेसे जो एकान्त-गर्वित (अत्यन्त अहंकारयुक्त)
हुआ है ऐसे आस्रवका तिरस्कार क रनेसे [प्रतिलब्ध-नित्य-विजयं संवरम् ] जिसनेे सदा विजय
प्राप्त की है ऐसे संवरको [सम्पादयत् ] उत्पन्न क रती हुई, [पररूपतः व्यावृत्तं ] पररूपसे भिन्न
(अर्थात् परद्रव्य और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे भिन्न), [सम्यक्-स्वरूपे नियमितं
स्फु रत् ] अपने सम्यक् स्वरूपमें निश्चलतासे प्रकाश करती हुई, [चिन्मयम् ] चिन्मय, [उज्ज्वलं ]
उज्ज्वल ( – निराबाध, निर्मल, दैदीप्यमान) और [निज-रस-प्राग्भारम् ] निजरसके (अपने
चैतन्यरसके) भारसे युक्त – अतिशयतासे युक्त [ज्योतिः ] ज्योति [उज्जृम्भते ] प्रगट होती है,
प्रसारित होती है ।
अथ प्रविशति संवरः ।
(शार्दूलविक्रीडित)
आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रव-
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम् ।
व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपे स्फु र-
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते ।।१२५।।
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संवर अधिकार