- ५ - संवर अधिकार
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम् ।
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते ।।१२५।।
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि ‘‘अब संवर प्रवेश करता है’’ । आस्रवके रंगभूमिमेंसे बाहर निकल जानेके बाद अब संवर रंगभूमिमें प्रवेश करता है ।
यहाँ पहले टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वाँगको जाननेवाले सम्यग्ज्ञानकी महिमादर्शक मंगलाचरण करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [आसंसार-विरोधि-संवर-जय-एकान्त-अवलिप्त-आस्रव-न्यक्कारात् ] अनादि संसारसे लेकर अपने विरोधी संवरको जीतनेसे जो एकान्त-गर्वित (अत्यन्त अहंकारयुक्त) हुआ है ऐसे आस्रवका तिरस्कार क रनेसे [प्रतिलब्ध-नित्य-विजयं संवरम् ] जिसनेे सदा विजय प्राप्त की है ऐसे संवरको [सम्पादयत् ] उत्पन्न क रती हुई, [पररूपतः व्यावृत्तं ] पररूपसे भिन्न (अर्थात् परद्रव्य और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे भिन्न), [सम्यक्-स्वरूपे नियमितं स्फु रत् ] अपने सम्यक् स्वरूपमें निश्चलतासे प्रकाश करती हुई, [चिन्मयम् ] चिन्मय, [उज्ज्वलं ] उज्ज्वल ( – निराबाध, निर्मल, दैदीप्यमान) और [निज-रस-प्राग्भारम् ] निजरसके (अपने चैतन्यरसके) भारसे युक्त – अतिशयतासे युक्त [ज्योतिः ] ज्योति [उज्जृम्भते ] प्रगट होती है, प्रसारित होती है ।