क्रोधः क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः ।।१८१।।
भावार्थ : — अनादि कालसे जो आस्रवका विरोधी है ऐसे संवरको जीतकर आस्रव मदसेगर्वित हुआ है । उस आस्रवका तिरस्कार करके उस पर जिसने सदाके लिये विजय प्राप्त की हैऐसे संवरको उत्पन्न करता हुआ, समस्त पररूपसे भिन्न और अपने स्वरूपमें निश्चल यह चैतन्यप्रकाश निजरसकी अतिशयतापूर्वक निर्मलतासे उदयको प्राप्त हुआ है ।१२५।
संवर अधिकारके प्रारम्भमें ही, श्री कुन्दकुन्दाचार्य सकल कर्मका संवर करनेका उत्कृष्टउपाय जो भेदविज्ञान है उसकी प्रशंसा करते हैं : —
उपयोगमें उपयोग, को उपयोग नहिं क्रोधादिमें ।
है क्रोध क्रोधविषै हि निश्चय, क्रोध नहिं उपयोगमें ।।१८१।।
उपयोग है नहिं अष्टविध, कर्मों अवरु नोकर्ममें ।
ये कर्म अरु नोकर्म भी कुछ हैं नहीं उपयोगमें ।।१८२।।
ऐसा अविपरीत ज्ञान जब ही प्रगटता है जीवके ।
तब अन्य नहिं कुछ भाव वह उपयोगशुद्धात्मा करे ।।१८३।।
गाथार्थ : — [उपयोगः ] उपयोग [उपयोगे ] उपयोगमें है, [क्रोधादिषु ] क्रोधादिमें[कोऽपि उपयोगः ] कोई भी उपयोग [नास्ति ] नहीं है; [च ] और [क्रोधः ] क्रोध [क्रोधे एव हि ] क्रोधमें ही है, [उपयोगे ] उपयोगमें [खलु ] निश्चयसे [क्रोधः ] क्रोध [नास्ति ] नहीं है ।