Samaysar (Hindi).

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[२९ ]
विषय
गाथा
विषय
गाथा
कायासे अतीत, वर्तमान और अनागत
कर्मके त्यागका उनचास उनचास भङ्ग द्वारा
कथन करके कर्मचेतनाके त्यागका विधान
दिखाया है तथा एक सौ अड़तालीस
प्रकृतियोंके फलके त्यागका कथन करके
कर्मफलचेतनाके त्यागका विधान दिखाया
है
ज्ञानमात्र कहनेमें स्याद्वादसे विरोध कैसे नहीं
आता है ? इसको बताते हुए, तथा एक ही
ज्ञानमें उपायभाव और उपेयभाव दोनों किस
तरह बनते हैं ? यह बताते हुए टीकाकार
आचार्यदेव इस ‘आत्मख्याति’ टीकाके
अन्तमें परिशिष्टरूपसे स्याद्वाद और उपाय-
उपेय-भावके विषयमें थोड़ा कहनेकी
प्रतिज्ञा करते हैं
। .................................
३८७-३८९
। .................
५८९
ज्ञानको समस्त अन्य द्रव्योंसे भिन्न
बतलाया हैं
। ......................
३९०-४०४
एक ज्ञानमें ही ‘‘तत्, अतत्, एक,
अनेक, सत्, असत्, नित्य, अनित्य’’
इन भावोंके चौदह भेद कर उनके १४
काव्य कहे हैं
आत्मा अमूर्तिक है, इसलिये इसके
पुद्गलमयी देह नहीं है
।........
४०५-४०७
। ..................
५९०
द्रव्यलिंग देहमयी है, इसलिये द्रव्यलिंग
ज्ञान लक्षण है और आत्मा लक्ष्य है, ज्ञानकी
आत्माके मोक्षका कारण नहीं है;
दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है, ऐसा
कथन
प्रसिद्धिसे ही आत्माकी प्रसिद्धि होती है,
इसलिये आत्माको ज्ञानमात्र कहा है
६०६
। ............................
४०८-४१०
एक ज्ञानक्रियारूप परिणत आत्मामें ही अनन्त

मोक्षका अर्थी दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप

शक्तियाँ प्रगट हैं, उनमेंसे सैंतालीस
शक्तियोंके नाम तथा लक्षणोंका कथन
मोक्षमार्गमें ही आत्माको प्रवर्तावे, ऐसा
उपदेश किया है
६०९
। ................
४११-४१२
उपाय-उपेयभावका वर्णन; उसमें, आत्मा
जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं वे समयसारको
परिणामी होनेसे साधकपना और सिद्धपना
नहीं जानते हैं
। ...................
४१३
ये दोनों भाव अच्छी तरह बनते हैं,
ऐसा कथन
व्यवहारनय ही मुनि-श्रावकके लिंगको
।......................
६१४
मोक्षमार्ग कहता है, और निश्चयनय किसी
लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता
ऐसा
थोड़े कलशोंमें, अनेक विचित्रतासे भरे
हुए आत्माकी महिमा करके परिशिष्ट
सम्पूर्ण
कथन
। ............................
४१४
। ...........................
६१८

इस शास्त्रको पूर्ण करते हुए, उसके अभ्यास

टीकाकार आचार्यदेवका वक्तव्य,
आदिका फल कहते हैं
। .......
४१५
आत्मख्याति टीका सम्पूर्ण
। ....
६२८
[परिशिष्ट पृष्ठ ५९२ से ६२९]
पं० श्री जयचन्दजी छाबड़ाका वक्तव्य,

इस शास्त्रको अनन्त धर्मवाले आत्माको

ग्रन्थ समाप्त
। .....................
६२९
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