Samaysar (Hindi).

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आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना,
उस सम्बन्धी कथन
।.....................
आत्माके सिवाय अन्य भावका त्याग करना;
कौन ज्ञानी परभावको पर जानकर ग्रहण
करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा
।.....
जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है,
बन्धनमें पड़ता है; जो अपराध नहीं करता,
वह बन्धनमें नहीं पड़ता
। ...............
अपराधका स्वरूप ..............................
‘शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मा
तो प्रतिक्रमण आदि द्वारा ही दोषोंसे छूट जाता
है; तो फि र शुद्ध आत्माके ग्रहणका क्या काम
है ?’ ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर यह दिया है
कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित
अप्रतिक्रमणादि-स्वरूप तीसरी भूमिकासे ही
शुद्ध आत्माके ग्रहणसे ही
आत्मा निर्दोष
होता है
। ...................................
९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
आत्माके अकर्तापना दृष्टांतपूर्वक कहते
हैं
। ...............................................
कर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है; उस
अज्ञानका सामर्थ्य दिखाते हैं
।................
जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे
उपजना- विनशना न छोड़े तब तक
वह कर्ता होता है
। ..............
कर्मफलका भोक्तृ पना भी आत्माका स्वभाव
नहीं है, अज्ञानसे ही वह भोक्ता होता है
ऐसा कथन
।......................
ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नहीं है
।.
ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है, उसका
दृष्टांतपूर्वक कथन
। ..............
जो आत्माको कर्ता मानते हैं उनका मोक्ष
नहीं है, ऐसा कथन
। ...........
अज्ञानी अपने भावकर्मका कर्ता है, ऐसा
युक्तिपूर्वक कथन
। ..............
आत्माके कर्तापना और अकर्तापना जिस तरह है
उस तरह स्याद्वाद द्वारा तेरह गाथाओंमें सिद्ध
किया हैं
। .........................
बौद्धमती ऐसा मानते हैं कि कर्मको करनेवाला
दूसरा है और भोगनेवाला दूसरा है; उसका
युक्तिपूर्वक निषेध
। ..............
कर्तृकर्मका भेद-अभेद जैसे है उसी तरह
नयविभाग द्वारा दृष्टांतपूर्वक कथन
निश्चयव्यवहारके कथनको, खड़ियाके दृष्टांतसे
दस गाथाओंमें स्पष्ट किया हैं
‘ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं’ ऐसा जाननेके
कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति रागद्वेष
नहीं होता; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान
जीवके परिणाम हैं
। .............
अन्यद्रव्यका अन्यद्रव्य कुछ नहीं कर सकता,
ऐसा कथन
।......................
स्पर्श आदि पुद्गलके गुण हैं वे आत्माको कुछ
ऐसा नहीं कहते कि हमको ग्रहण करो और
आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनको
जानने नही जाता; परन्तु अज्ञानी जीव उनसे
वृथा राग-द्वेष करता है
।........
प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाका
स्वरूप
। ...........................
जो कर्म और कर्मफलका अनुभव करता हुआ
अपनेको उसरूप करता है वह नवीन कर्मका
बंध करता है
(यहाँ पर टीकाकार आचार्य-
देवने कृत-कारित-अनुमोदनासे मन-वचन-
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विषय
गाथा
विषय
गाथा
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