[२८ ]
विषय
गाथा
विषय
गाथा
आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना,
जो आत्माको कर्ता मानते हैं उनका मोक्ष
उस सम्बन्धी कथन
।.....................
२९७-२९९
नहीं है, ऐसा कथन
। ...........
३२१-३२७
आत्माके सिवाय अन्य भावका त्याग करना;
अज्ञानी अपने भावकर्मका कर्ता है, ऐसा
कौन ज्ञानी परभावको पर जानकर ग्रहण
करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा
करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा
युक्तिपूर्वक कथन
। ..............
३२८-३३१
।.....
३००
आत्माके कर्तापना और अकर्तापना जिस तरह है
जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है,
उस तरह स्याद्वाद द्वारा तेरह गाथाओंमें सिद्ध
किया हैं
किया हैं
बन्धनमें पड़ता है; जो अपराध नहीं करता,
वह बन्धनमें नहीं पड़ता
वह बन्धनमें नहीं पड़ता
। .........................
३३२-३४४
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३०१-३०३
३०४-३०५
३०४-३०५
बौद्धमती ऐसा मानते हैं कि कर्मको करनेवाला
अपराधका स्वरूप ..............................
‘शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मा
‘शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मा
दूसरा है और भोगनेवाला दूसरा है; उसका
युक्तिपूर्वक निषेध
युक्तिपूर्वक निषेध
। ..............
३४५-३४८
तो प्रतिक्रमण आदि द्वारा ही दोषोंसे छूट जाता
है; तो फि र शुद्ध आत्माके ग्रहणका क्या काम
है ?’ ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर यह दिया है
कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित
अप्रतिक्रमणादि-स्वरूप तीसरी भूमिकासे ही — शुद्ध आत्माके ग्रहणसे ही
है; तो फि र शुद्ध आत्माके ग्रहणका क्या काम
है ?’ ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर यह दिया है
कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित
अप्रतिक्रमणादि-स्वरूप तीसरी भूमिकासे ही — शुद्ध आत्माके ग्रहणसे ही
कर्तृकर्मका भेद-अभेद जैसे है उसी तरह
नयविभाग द्वारा दृष्टांतपूर्वक कथन
।
३४९-३५५
निश्चयव्यवहारके कथनको, खड़ियाके दृष्टांतसे
दस गाथाओंमें स्पष्ट किया हैं
।
३५६-३६५
‘ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं’ ऐसा जाननेके
—
आत्मा निर्दोष
कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति रागद्वेष
नहीं होता; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान
जीवके परिणाम हैं
नहीं होता; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान
जीवके परिणाम हैं
होता है
३०६-३०७
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९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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३६६-३७१
आत्माके अकर्तापना दृष्टांतपूर्वक कहते
अन्यद्रव्यका अन्यद्रव्य कुछ नहीं कर सकता,
३०८-३११
हैं
। ...............................................
ऐसा कथन
।......................
३७२
कर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है; उस
स्पर्श आदि पुद्गलके गुण हैं वे आत्माको कुछ
अज्ञानका सामर्थ्य दिखाते हैं
।................
३१२-३१३
ऐसा नहीं कहते कि हमको ग्रहण करो और
आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनको
जानने नही जाता; परन्तु अज्ञानी जीव उनसे
वृथा राग-द्वेष करता है
आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनको
जानने नही जाता; परन्तु अज्ञानी जीव उनसे
वृथा राग-द्वेष करता है
जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे
उपजना- विनशना न छोड़े तब तक
वह कर्ता होता है
वह कर्ता होता है
।........
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३७३-३८२
३१४-३१५
प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाका
कर्मफलका भोक्तृ पना भी आत्माका स्वभाव
स्वरूप
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३८३-३८६
नहीं है, अज्ञानसे ही वह भोक्ता होता है
ऐसा कथन
ऐसा कथन
।......................
जो कर्म और कर्मफलका अनुभव करता हुआ
३१६-३१७
३१८-३१९
३१८-३१९
अपनेको उसरूप करता है वह नवीन कर्मका
बंध करता है
बंध करता है
ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नहीं है
।.
।
(यहाँ पर टीकाकार आचार्य-
ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है, उसका
देवने कृत-कारित-अनुमोदनासे मन-वचन-
३२०
दृष्टांतपूर्वक कथन
। ..............