एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य वैपरीत्यकणिकामप्यनासादयदविचलितमवतिष्ठते, तदा
शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञानं ज्ञानमेव केवलं सन्न किंचनापि रागद्वेषमोहरूपं भावमारचयति । ततो
भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलम्भः प्रभवति । शुद्धात्मोपलम्भात् रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति ।
कथं भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलम्भ इति चेत् —
जह कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिच्चयदि ।
तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ।।१८४।।
एवं जाणदि णाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं ।
अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो ।।१८५।।
यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तं परित्यजति ।
तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वम् ।।१८४।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
सदा ज्ञानस्वरूप ही रहा है, रागादिरूप कभी नहीं हुआ’’ । इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि ‘‘हे
सत्पुरुषों ! अब मुदित होओ’’ ।१२६।
टीका : — इसप्रकार जब यह भेदविज्ञान ज्ञानको अणुमात्र भी (रागादिविकाररूप)
विपरीतताको न प्राप्त कराता हुआ अविचलरूपसे रहता है, तब शुद्ध-उपयोगमयात्मकताके द्वारा
ज्ञान केवल ज्ञानरूप ही रहता हुआ किंचित्मात्र भी रागद्वेषमोहरूप भावको नहीं करता; इसलिये
(यह सिद्ध हुआ कि) भेदविज्ञानसे शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (अनुभव) होती है और शुद्ध
आत्माकी उपलब्धिसे रागद्वेषमोहका (आस्रवभावका) अभाव जिसका लक्षण है ऐसा संवर
होता है ।
अब यह प्रश्न होता है कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (अनुभव) कैसे होती
है ? उसके उत्तरमें गाथा कहते हैं : —
ज्यों अग्नितप्त सुवर्ण भी, निज स्वर्णभाव नहीं तजे ।
त्यों कर्मउदय-प्रतप्त भी, ज्ञानी न ज्ञानिपना तजे ।।१८४।।
जीव ज्ञानि जाने योंहि, अरु अज्ञानि राग ही जीव गिनें ।
आत्मस्वभाव-अजान जो, अज्ञानतमआच्छादसे ।।१८५।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [कनकम् ] सुवर्ण [अग्नितप्तम् अपि ] अग्निसे तप्त होता