रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च ।
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ।।१२६।।
इसप्रकार (ज्ञानका और क्रोधादिक तथा कर्म-नोकर्मका) भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हुआ ।
भावार्थ : — उपयोग तो चैतन्यका परिणमन होनेसे ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म — सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाम होनेसे जड़ है; उनमें और ज्ञानमें प्रदेशभेद होनेसे अत्यन्त भेद है । इसलिये उपयोगमें क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नहीं है और क्रोधादिमें, कर्ममें तथा नोकर्ममें उपयोग नहीं हैं । इसप्रकार उनमें पारमार्थिक आधाराधेयसम्बन्ध नहीं है; प्रत्येक वस्तुका अपना अपना आधाराधेयत्व अपने-अपनेमें ही है । इसलिये उपयोग उपयोगमें ही है और क्रोध, क्रोधमें ही है । इसप्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हो गया । (भावकर्म इत्यादिका और उपयोगका भेद जानना सो भेदविज्ञान है ।)।१८१-१८३।
श्लोकार्थ : — [चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपताको धारण करनेवाला ज्ञान और जड़रूपताको धारण करनेवाला राग — [द्वयोः ] दोनोंका, [अन्तः ] अन्तरंगमें [दारुणदारणेन ] दारुण विदारणके द्वारा (भेद करनेवाला उग्र अभ्यासके द्वारा), [परितः विभागं कृत्वा ] सभी ओरसे विभाग क रके ( — सम्पूर्णतया दोनोंको अलग करके — ), [इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति ] यह निर्मल भेदज्ञान उदयको प्राप्त हुआ है; [अधुना ] इसलिये अब [एक म् शुद्ध-ज्ञानघन-ओघम् अध्यासिताः ] एक शुद्धविज्ञानघनके पुञ्जमें स्थित और [द्वितीय-च्युताः ] अन्यसे अर्थात् रागसे रहित [सन्तः ] हे सत्पुरुषों ! [मोदध्वम् ] मुदित होओ ।
भावार्थ : — ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिक पुद्गलविकार होनेसे जड़ हैं; किन्तु अज्ञानसे ऐसा भासित होता है कि मानों ज्ञान भी रागादिरूप हो गया हो, अर्थात् ज्ञान और रागादिक दोनों एकरूप – जड़रूप – भासित होते हैं । जब अंतरंगमें ज्ञान और रागादिका भेद करनेका तीव्र अभ्यास करनेसे भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञानका स्वभाव तो मात्र जाननेका ही है, ज्ञानमें जो रागादिकी कलुषता – आकुलतारूप सङ्कल्प-विकल्प भासित होते हैं वे सब पुद्गलविकार हैं, जड़ हैं । इसप्रकार ज्ञान और रागादिके भेदका स्वाद आता है अर्थात् अनुभव होता है । जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनन्दित होता है, क्योंकि उसे ज्ञात है कि ‘‘स्वयं