(शार्दूलविक्रीडित)
चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभागं द्वयो-
रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च ।
भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ।।१२६।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
संवर अधिकार
२८९
37
इसप्रकार (ज्ञानका और क्रोधादिक तथा कर्म-नोकर्मका) भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध
हुआ ।
भावार्थ : — उपयोग तो चैतन्यका परिणमन होनेसे ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकर्म,
ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म — सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाम होनेसे जड़ है; उनमें
और ज्ञानमें प्रदेशभेद होनेसे अत्यन्त भेद है । इसलिये उपयोगमें क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नहीं
है और क्रोधादिमें, कर्ममें तथा नोकर्ममें उपयोग नहीं हैं । इसप्रकार उनमें पारमार्थिक
आधाराधेयसम्बन्ध नहीं है; प्रत्येक वस्तुका अपना अपना आधाराधेयत्व अपने-अपनेमें ही है ।
इसलिये उपयोग उपयोगमें ही है और क्रोध, क्रोधमें ही है । इसप्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध
हो गया । (भावकर्म इत्यादिका और उपयोगका भेद जानना सो भेदविज्ञान है ।)।१८१-१८३।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपताको धारण
करनेवाला ज्ञान और जड़रूपताको धारण करनेवाला राग — [द्वयोः ] दोनोंका, [अन्तः ] अन्तरंगमें
[दारुणदारणेन ] दारुण विदारणके द्वारा (भेद करनेवाला उग्र अभ्यासके द्वारा), [परितः विभागं
कृत्वा ] सभी ओरसे विभाग क रके ( — सम्पूर्णतया दोनोंको अलग करके — ), [इदं निर्मलम्
भेदज्ञानम् उदेति ] यह निर्मल भेदज्ञान उदयको प्राप्त हुआ है; [अधुना ] इसलिये अब [एक म्
शुद्ध-ज्ञानघन-ओघम् अध्यासिताः ] एक शुद्धविज्ञानघनके पुञ्जमें स्थित और [द्वितीय-च्युताः ]
अन्यसे अर्थात् रागसे रहित [सन्तः ] हे सत्पुरुषों ! [मोदध्वम् ] मुदित होओ ।
भावार्थ : — ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिक पुद्गलविकार होनेसे जड़ हैं; किन्तु
अज्ञानसे ऐसा भासित होता है कि मानों ज्ञान भी रागादिरूप हो गया हो, अर्थात् ज्ञान और रागादिक
दोनों एकरूप – जड़रूप – भासित होते हैं । जब अंतरंगमें ज्ञान और रागादिका भेद करनेका तीव्र
अभ्यास करनेसे भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञानका स्वभाव तो मात्र जाननेका
ही है, ज्ञानमें जो रागादिकी कलुषता – आकुलतारूप सङ्कल्प-विकल्प भासित होते हैं वे सब
पुद्गलविकार हैं, जड़ हैं । इसप्रकार ज्ञान और रागादिके भेदका स्वाद आता है अर्थात् अनुभव
होता है । जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनन्दित होता है, क्योंकि उसे ज्ञात है कि ‘‘स्वयं