व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रुध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद
एव इति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वम् । किंच यदा किलैकमेवाकाशं
भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठितं विभावयतो
क्रोधादिक्रिया है उसीप्रकार (क्रोधादिका स्वरूप) जाननक्रिया भी हो ऐसा किसी भी प्रकारसे
स्थापित नहीं किया जा सकता; क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधादिक्रिया भिन्न-भिन्न स्वभावसे
प्रकाशित होती हैं और इस भाँति स्वभावोंके भिन्न होनेसे वस्तुएँ भिन्न ही हैं । इसप्रकार ज्ञान तथा
इसीको विशेष समझाते हैं : — जब एक ही आकाशको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (आकाशके) आधारआधेयभावका विचार किया जाता है तब आकाशको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करनेका निरोध होनेसे (अर्थात् अन्य द्रव्योंमें स्थापित करना अशक्य होनेसे) बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा ❃
आकाशमें ही प्रतिष्ठित है’ यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और इसलिये ऐसा समझ लेनेवालेको पर-आधाराधेयत्व भासित नहीं होता । इसप्रकार जब एक ही ज्ञानको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (ज्ञानके) आधारआधेयभावका विचार किया जाये तब ज्ञानको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करनेका निरोध ही होनेसे बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा प्रभवित नहीं होती; और उसके प्रभवित नहीं होनेसे, ‘एक ज्ञान ही एक ज्ञानमें ही प्रतिष्ठित है’ यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और इसलिये ऐसा समझ लेनेवालेको पर-आधाराधेयत्व भासित नहीं होता । इसलिये ज्ञान ही ज्ञानमें ही है, और क्रोधादिक ही क्रोधादिमें ही है । ❃प्रभवित नहीं होती = लागू नहीं होती; लग सकती नहीं; शमन हो जाती है; उद्भूत नहीं होती ।