कथं शुद्धात्मोपलम्भादेव संवर इति चेत् —
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो ।
जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि ।।१८६।।
शुद्धं तु विजानन् शुद्धं चैवात्मानं लभते जीवः ।
जानंस्त्वशुद्धमशुद्धमेवात्मानं लभते ।।१८६।।
यो हि नित्यमेवाच्छिन्नधारावाहिना ज्ञानेन शुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते स ज्ञानमयात्
भावात् ज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसन्तानस्य
निरोधाच्छुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति; यस्तु नित्यमेवाज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
भावार्थ : — जिसे भेदविज्ञान हुआ है वह आत्मा जानता है कि ‘आत्मा क भी
ज्ञानस्वभावसे छूटता नहीं है’ । ऐसा जानता होनेसे वह, कर्मोदयके द्वारा तप्त होता हुआ भी, रागी,
द्वेषी, मोही नहीं होता, परन्तु निरन्तर शुद्ध आत्माका अनुभव करता है । जिसे भेदविज्ञान नहीं है
वह आत्मा, आत्माके ज्ञानस्वभावको न जानता हुआ, रागको ही आत्मा मानता है, इसलिये वह
रागी, द्वेषी, मोही होता है, किन्तु कभी भी शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं करता । इसलिये यह सिद्ध
हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होती है ।।१८४-१८५।।
अब यह प्रश्न होता है कि शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे ही संवर कैसे होता है ? इसका
उत्तर कहते हैं : —
जो शुद्ध जाने आत्मको, वह शुद्ध आत्म ही प्राप्त हो ।
अनशुद्ध जाने आत्मको, अनशुद्ध आत्म हि प्राप्त हो ।।१८६।।
गाथार्थ : — [शुद्धं तु ] शुद्ध आत्माको [विजानन् ] जानता हुआ – अनुभव करता हुआ
[जीवः ] जीव [शुद्धं च एव आत्मानं ] शुद्ध आत्माको ही [लभते ] प्राप्त करता है [तु ] और
[अशुद्धम् ] अशुद्ध [आत्मानं ] आत्माको [जानन् ] जानता हुआ – अनुभव करता हुआ जीव
[अशुद्धम् एव ] अशुद्ध आत्माको ही [लभते ] प्राप्त करता है ।
टीका : — जो सदा ही अच्छिन्नधारावाही ज्ञानसे शुद्ध आत्माका अनुभव किया करता है
वह, ‘ज्ञानमय भावमेंसे ज्ञानमय भाव ही होता है’ इस न्यायके अनुसार नये कर्मोंके आस्रवणका
निमित्त जो रागद्वेषमोहकी संतति (परम्परा) उसका निरोध होनेसे, शुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता
है; और जो सदा ही अज्ञानसे अशुद्ध आत्माका अनुभव किया करता है वह, ‘अज्ञानमय भावमेंसे