Samaysar (Hindi). Kalash: 127.

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सोऽज्ञानमयाद्भावादज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेष-
मोहसन्तानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति
अतः शुद्धात्मोपलम्भादेव संवरः
(मालिनी)
यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन
ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते
तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति
।।१२७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
संवर अधिकार
२९३
अज्ञानमय भाव ही होता है’ इस न्यायके अनुसार नये कर्मोंके आस्रवणका निमित्त जो रागद्वेषमोहकी
संतति उसका निरोध न होनेसे, अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है
अतः शुद्ध आत्माकी
उपलब्धिसे (अनुभवसे) ही संवर होता है
भावार्थ :जो जीव अखण्डधारावाही ज्ञानसे आत्माको निरन्तर शुद्ध अनुभव किया
करता है उसके रागद्वेषमोहरूप भावास्रव रुकते हैं, इसलिये वह शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है;
और जो जीव अज्ञानसे आत्माका अशुद्ध अनुभव करता है उसके रागद्वेषमोहरूप भावास्रव नहीं
रुकते, इसलिये वह अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है
इसप्रकार सिद्ध हुआ कि शुद्ध आत्माकी
उपलब्धिसे (अनुभवसे) ही संवर होता है ।।१८६।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यदि ] यदिे [क थम् अपि ] किसी भी प्रकारसे (तीव्र पुरुषार्थ करके)
[धारावाहिना बोधनेन ] धारावाही ज्ञानसे [शुद्धम् आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [ध्रुवम् उपलभमानः
आस्ते ]
निश्चलतया अनुभव किया क रे [तत् ] तो [अयम् आत्मा ] यह आत्मा, [उदयत्-आत्म-
आरामम् आत्मानम् ]
जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है (अर्थात् जिसकी आत्मस्थिरता बढ़ती
जाती है) ऐसे आत्माको [पर-परिणति-रोधात् ] परपरिणतिके निरोधसे [शुद्धम् एव अभ्युपैति ]
शुद्ध ही प्राप्त क रता है
भावार्थ :धारावाही ज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्माका अनुभव करनेसे रागद्वेषमोहरूप
परपरिणतिका (भावास्रवोंका) निरोध होता है और उससे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है
धारावाही ज्ञानका अर्थ है प्रवाहरूपज्ञानअखण्ड रहनेवाला ज्ञान वह दो प्रकारसे कहा
जाता है :एक तो, जिसमें बीचमें मिथ्याज्ञान न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है दूसरा,
एक ही ज्ञेयमें उपयोगके उपयुक्त रहनेकी अपेक्षासे ज्ञानकी धारावाहिकता कही जाती है, अर्थात्
जहाँ तक उपयोग एक ज्ञेयमें उपयुक्त रहता है वहाँ तक धारावाही ज्ञान कहलाता है; इसकी स्थिति