सोऽज्ञानमयाद्भावादज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेष-
मोहसन्तानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति । अतः शुद्धात्मोपलम्भादेव संवरः ।
(मालिनी)
यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन
ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते ।
तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ।।१२७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
संवर अधिकार
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अज्ञानमय भाव ही होता है’ इस न्यायके अनुसार नये कर्मोंके आस्रवणका निमित्त जो रागद्वेषमोहकी
संतति उसका निरोध न होनेसे, अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है । अतः शुद्ध आत्माकी
उपलब्धिसे (अनुभवसे) ही संवर होता है ।
भावार्थ : — जो जीव अखण्डधारावाही ज्ञानसे आत्माको निरन्तर शुद्ध अनुभव किया
करता है उसके रागद्वेषमोहरूप भावास्रव रुकते हैं, इसलिये वह शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है;
और जो जीव अज्ञानसे आत्माका अशुद्ध अनुभव करता है उसके रागद्वेषमोहरूप भावास्रव नहीं
रुकते, इसलिये वह अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है । इसप्रकार सिद्ध हुआ कि शुद्ध आत्माकी
उपलब्धिसे (अनुभवसे) ही संवर होता है ।।१८६।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यदि ] यदिे [क थम् अपि ] किसी भी प्रकारसे (तीव्र पुरुषार्थ करके)
[धारावाहिना बोधनेन ] धारावाही ज्ञानसे [शुद्धम् आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [ध्रुवम् उपलभमानः
आस्ते ] निश्चलतया अनुभव किया क रे [तत् ] तो [अयम् आत्मा ] यह आत्मा, [उदयत्-आत्म-
आरामम् आत्मानम् ] जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है (अर्थात् जिसकी आत्मस्थिरता बढ़ती
जाती है) ऐसे आत्माको [पर-परिणति-रोधात् ] परपरिणतिके निरोधसे [शुद्धम् एव अभ्युपैति ]
शुद्ध ही प्राप्त क रता है
।
भावार्थ : — धारावाही ज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्माका अनुभव करनेसे रागद्वेषमोहरूप
परपरिणतिका (भावास्रवोंका) निरोध होता है और उससे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है ।
धारावाही ज्ञानका अर्थ है प्रवाहरूपज्ञान – अखण्ड रहनेवाला ज्ञान । वह दो प्रकारसे कहा
जाता है : — एक तो, जिसमें बीचमें मिथ्याज्ञान न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है । दूसरा,
एक ही ज्ञेयमें उपयोगके उपयुक्त रहनेकी अपेक्षासे ज्ञानकी धारावाहिकता कही जाती है, अर्थात्
जहाँ तक उपयोग एक ज्ञेयमें उपयुक्त रहता है वहाँ तक धारावाही ज्ञान कहलाता है; इसकी स्थिति